Book Title: Jinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 13
________________ जिनवाणी ||15,17 नवम्बर 2006 बिन्दुओं पर विवाद उठते रहते हैं। स्थानकवासी परम्परा में प्रतिक्रमण संबंधी विवाद को दूर कर एक श्रावक प्रतिक्रमण तय करने हेतु प्रतिक्रमण निर्णय समिति' का गठन किया गया। पूज्य (आचार्य) श्री हस्तीमल जी म.सा. के संयोजन में श्रावक प्रतिक्रमण ‘सार्थ सामायिक प्रतिक्रमण सूत्र' प्रकाशित हुआ। सम्मेलन में यह भी निर्णय हुआ कि दैवसिय प्रतिक्रमण में ४, पक्खी को ८, चातुर्मासिक को १२ एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में २० लोगस्स का ध्यान किया जाएगा। किन्तु अभी भी इसके सहित कुछ बिन्दुओं पर मतभेद है, यथा- श्रावक प्रतिक्रमण सूत्र में श्रमण प्रतिक्रमण की पाँच पाटियों का समावेश किया जाये या नहीं। चातुर्मासिक एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण एक किया जाये या दो? इन विवादों में सबके अपने-अपने तर्क है। जो जैसा मानता है वह उसके अनुसार तर्क ढूँढ लेता है। किन्तु सत्य का अन्वेषण करने वाले को एवं उसको स्वीकार करने वाले को किसी प्रकार की भ्रान्ति नहीं होती। श्रावक प्रतिक्रमण में श्रमण प्रतिक्रमण की पाँच पाटियों का समावेश आवश्यक नहीं है, इस संबंध में इस विशेषांक में तीन स्थानों पर चर्चा हुई है। एक आलेख श्री धर्मचन्द जी जैन का है, जिसमें इन पाठों की अप्रासंगिकता स्वीकार की गई है। प्रतिक्रमण के विशिष्ट प्रश्नोत्तरों में भी इसकी तर्कपुरस्सर सार्थक चर्चा हुई है तथा विस्तार से इसका विश्लेषण श्री मदनलाल कटारिया के द्वारा प्रश्नोत्तर शैली में निबद्ध आलेख में किया गया है। . दो प्रतिक्रमण की मान्यता मूर्तिपूजक समाज का प्रभाव है। ज्ञातासूत्र में पंथकजी द्वारा दो प्रतिक्रमण किये जाने को सामान्य नियम नहीं बनाया जा सकता। ज्ञाताधर्मकथांग सूत्र के इस उल्लेख के अतिरिक्त कहीं भी ऐसा उल्लेख नहीं मिलता कि साधु और श्रावक को दो प्रतिक्रमण करने चाहिए। जिस प्रकार पाक्षिक प्रतिक्रमण में देवसिय प्रतिक्रमण सम्मिलित माना जाता है उसी प्रकार चातुर्मासिक एवं सांवत्सरिक प्रतिक्रमण में देवसिय प्रतिक्रमण को सम्मिलित मानने में कोई बाधा नहीं होनी चाहिये। फिर यों तो दो ही प्रतिक्रमण क्यों पर्याप्त मान लिये गये, तीन और चार भी कर लेने चाहिए। ___ आवश्यकता इस बात की है कि प्रतिक्रमण करते समय मन, वाणी और काया तीनों का योग तथा आत्मभावों का उपयोग प्रतिक्रमण में रहें। यदि ऐसा हुआ तो प्रतिक्रमण सम्बन्धी ये विवाद बौने नजर आयेंगे और प्रतिक्रमण की साधना का डंका जगत् में चहुँ और स्वतः निनादित होता रहेगा। इस विशेषाङ्क में सभी जैन सम्प्रदायों का प्रतिनिधित्व है। स्थानकवासी परम्परा में आचार्यप्रवर श्री हीराचन्द्र जी म.सा., (स्व.) आचार्य श्री नानेश, (स्व.) आचार्य श्री देवेन्द्रमुनि जी आदि का प्रतिनिधित्व है तो तेरापंथ सम्प्रदाय में आचार्य श्री महाप्रज्ञ एवं दिगम्बर परम्परा में आचार्य श्री कनकनन्दी जी के लेख भी सन्निविष्ट हैं। खरतरगच्छ, तपागच्छ के प्रतिक्रमण से सम्बन्धित लेख भी इस विशेषाङ्क को व्यापक बना रहे ___ विशेषाङ्क को जिन-जिन श्रद्धेय सन्तप्रवरों, आचार्यो एवं विद्वज्जनों का वैचारिक योगदान मिला है, उन सबके प्रति मैं हृदय से कृतज्ञ हूँ तथा विनम्रतापूर्वक इसे पाठकों के कर-कमलों में समर्पित करता हूँ। -डॉ. धर्मचन्द जैन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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