Book Title: Jinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 14
________________ 15.17 नवम्बर 2006 जिनवाणी, 15 प्रतिक्रमण : आत्मविशुद्धि का अमोघ उपाय आचार्यप्रवर श्री हीराचन्द्र जी म. सा. प्रतिक्रमण की साधना आत्म-विशुद्धि की अमोघ साधना है। आज व्यक्ति बाह्यशुद्धि के प्रति जितना सजग है उतना ही आन्तरिक शुद्धि के प्रति असजग । स्थानकवासी रत्नसंघ के अष्टम पट्टधर आचार्यप्रवर पूज्य श्री हीराचन्द्र जी म.सा. ने प्रतिक्रमण विषयक अपने इस प्रवचन में व्यक्ति को आन्तरिक शुद्धि के प्रति सजग बनने की महती प्रेरणा की है। १७ सितम्बर २००६ को बंगारपेट में फरमाये गए इस प्रवचन में प्रतिक्रमण का सर्वांग विवेचन हुआ है । प्रवचन का संकलन श्रावकरत्न श्री जगदीश जी जैन के द्वारा किया गया है। -सम्पादक तीर्थंकर भगवान् महावीर ने आचारांग से लेकर दृष्टिवाद तक अंगशास्त्र में जितने भी उपदेश दिये, जितनी वागरणाएँ की, वे सब आत्मधर्म को लेकर की, आत्मविशुद्धि के लिये की। उनका कथन है- आत्मा के अन्दर जो वासनाएँ-विकार, जो कर्म-मैल हमारे अपने अज्ञान और असावधानी से अथवा प्रमाद से प्रविष्ट हो गये हैं, उन्हें शुद्ध कर भीतर सोये हुए ईश्वरत्व को जगाने की साधना 'सामायिक' और 'प्रतिक्रमण' है। वीतराग वाणी कहती है- मानव तेरे भीतर पशुत्व, असुरत्व, दानवत्व की जो वृत्ति आ गई है, वह तेरी अपनी स्वभावजन्य नहीं, इधर-उधर बाहर से आई है, यह तेरा मूल स्वरूप नहीं है। आध्यात्मिक दर्शन कहता है- हे साधक! तू घनघोर घटाओं से घिरे हुए, बादलों में छुपे हुए सूर्य के समान है। तुझे बाहर से भले ही बादलों ने घेर रखा हो, पर तू अन्दर से तेजस्वी सूर्य है, सहस्ररश्मि ही नहीं, अनन्त रश्मि है, पहले था और अनन्त काल तक सूर्य ही रहेगा। ये जो तेरे ऊपर कर्मों के बादल छा गये हैं, वासनाओं की काली घटाएँ आ गई हैं, उसी के कारण तेरा अनिवर्चनीय तेज, परम प्रकाश लुप्त हो गया है, तुझे उन घटाओं को छिन्न-भिन्न करना होगा। ऐसा करने से तेरा सहज स्वाभाविक तेज और प्रकाश जगमगा उठेगा। अतः "उट्ठिए नो पमायए' उठ! प्रमाद मत कर और अपने आपको हीन, दीन, दुराचारी मत समझ। हर अशुद्धि को दूर करने का उपाय है। ___ व्यवहार जगत् में मैले कपड़े सोड़े और साबुन से धोकर, रूई की धुनाई कर, बर्तन को मांजकर, सोने-चाँदी आदि धातु को तपाकर, गटर के पानी को फिल्टर कर, कमरे को झाड़-बुहार कर, धान को हवा में बरसा कर, रस्सी (मवाद) को औषधि से सुखाकर, घी को गर्म कर, पेट को जुलाब लेकर जैसे शुद्ध किया जाता है, इसी तरह पाप कर्मो से मलिन बनी हुई आत्मा को, आलोचना और प्रतिक्रमण के पश्चात्ताप में तपाकर शुद्ध किया जा सकता है। जितना अधिक पश्चात्ताप और खेद होगा, उतनी ही अधिक अशुद्धि दूर होगी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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