Book Title: Jinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 11
________________ | जिनवाणी 15.17 नवम्बर 2006 देने के लिए भावना भाता है एवं सदैव उत्सुक रहता है। शरीर छूटने के समय संलेखना-संथारापूर्वक समाधिमरण का वरण करता है। पंचम आवश्यक कायोत्सर्ग में काया के उत्सर्ग अर्थात् काया के प्रति ममत्व का त्याग और देहाभिमान का त्याग मुख्य है। अपने दोषों का प्रतिक्रमण कर लेने के पश्चात् भी साधक देह से अपने को पृथक् समझने का अभ्यास करता है। प्राचीन ग्रन्थों में कायोत्सर्ग की विधि दी गई है। पहले कायोत्सर्ग में श्वासोच्छ्वास पर ध्यान केन्द्रित किया जाता था और अब उसके स्थान पर लोगस्स के पाठ पर ध्यान किया जाता है। श्वासोच्छ्वास में लक्ष्य संभवतः श्वास के आने या जाने को तटस्थता से देखने का रहा होगा। किन्तु कालान्तर में यह विधि छूट गई। कायोत्सर्ग खड़े होकर, बैठकर और लेटकर भी किया जा सकता है। लेकिन श्रेष्ठ विधि खड़े रहकर कायोत्सर्ग करना है क्योंकि इसमें निद्रा आदि दोष की कम संभावना रहती है। इस विशेषांक में कायोत्सर्ग से सम्बद्ध तीन-चार लेख समाविष्ट हैं जो कायोत्सर्ग की महत्ता, विधि आदि पर प्रकाश डालते हैं। छठे प्रत्याख्यान आवश्यक में अपनी वृत्तियों को नियन्त्रित करने के लिए आहार आदि का निश्चित समय तक त्याग रखकर तप का आराधन किया जाता है। इसका लक्ष्य होता है आत्म-दोषों का निराकरण, उन्हें पुनः न करने का संकल्प तथा ज्ञानादि सद्गुणों की प्राप्ति। प्रत्याख्यान के माध्यम से ही क्रोधादि कषायों पर विजय पायी जाती है। कोई भी प्रत्याख्यान है, वह ज्ञानपूर्वक करने पर सुप्रत्याख्यान होता है तथा अज्ञानपूर्वक प्रत्याख्यान दुष्प्रत्याख्यान कहलाता है। __ इन षडावश्यकों का आचरण व्यक्ति को मिथ्यात्वी से सम्यक्त्वी, अव्रती से व्रती, प्रमत्त से अप्रमत्त, सकषाय से निष्कषाय और अशुभ योगी से शुभ योगी बना सकता है। आवश्यक अथवा प्रतिक्रमण के पाठों एवं विधि में यथावश्यक विकास होता रहा है। आवश्यक सूत्र का अवलोकन करने पर विदित होता है कि यह संक्षिप्त एवं सारगर्भित है तथा इसमें श्रमण आवश्यक का ही प्रतिपादन है, श्रावक प्रतिक्रमण का नहीं । आवश्यक सूत्र के ६ अध्ययनों में क्रमशः निम्नांकित पाठ प्राप्त होते सामायिक चतुर्विंशतिस्तव वन्दनप्रतिक्रमण करेमि भंते, इच्छामि ठामि काउस्सग्गं, इच्छामि पडिक्कमिउं इरियावहियाए का पाठ, तस्सउत्तरीकरणेणं का पाठ, ज्ञान के अतिचार (आगमे तिविहे का पाठ) आदि। । लोगस्स का पाठ। इस पाठ में लोगस्स उज्जोयगरे से लेकर 'सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु' तक सातों पद्य हैं। इच्छामि खमासमणो का पाठ। चत्तारि मंगलं, इच्छामि पडिक्कमिउं, इरियावहियाए, शय्यासूत्र (शयन सबंधी दोष-निवृत्ति का पाठ), भिक्षादोष निवृत्ति सूत्र (पडिक्कमामि गोयरग्गचरियाए), स्वाध्याय तथा प्रतिलेखना सूत्र, तैतीस बोल का पाठ (एक से लेकर तैंतीस की संख्या में विभिन्न दोषों का प्रतिक्रमण), निर्ग्रन्थ प्रवचन का पाठ (नमो चउवीसाए तित्थयराणं आदि)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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