Book Title: Jinvani Special issue on Pratikraman November 2006
Author(s): Dharmchand Jain
Publisher: Samyag Gyan Pracharak Mandal

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Page 10
________________ | 15,17 नवम्बर 2006 जिनवाणी किया जाता है। इसके अन्तर्गत श्रावक प्रतिक्रमण में सम्यक्त्व, ज्ञान, बारह व्रत, कर्मादान, संलेखना आदि के ९९ अतिचारों का आलोचन किया जाता है। श्रमण प्रतिक्रमण में कुल १२५ अतिचारों का आलोचन होता है। देहादि से आसक्ति रहते हुए आत्मदोषों का अवलोकन इतना सरल नहीं होता, इसलिए देह के प्रति ममत्व अथवा देहाध्यास का त्याग करके निष्पक्ष व तटस्थ होकर आत्मकृत अतिचारों का आलोचन किया जाता है। सभी अतिचारों के पाठ पर ध्यान दिये जाने से यह ज्ञात हो जाता है कि मेरे व्रतों में कौनसा अतिचार लगा और कौनसा नहीं। यह आलोचन सूक्ष्मस्तर पर शान्तभाव से होना चाहिए ताकि अपना दोष पकड़ में आ सके। दूसरे आवश्यक में 'लोगस्स' पाठ के द्वारा २४ तीर्थंकरों की स्तुति की जाती है। ये तीर्थंकर दोषमुक्त हैं। अतः अपने दोष ध्यान में आने के पश्चात् दोष-मुक्त का उत्कीर्तन करने से अपने दोषों को दूर करने की भावना बलवती बनती है और यह आत्मविश्वास जागता है कि जिस प्रकार तीर्थंकर दोषमुक्त बने हैं उस प्रकार मैं भी दोषमुक्त बन सकता हूँ। तीसरे वन्दना आवश्यक में 'इच्छामि खमासमणो' के पाठ से मूल गुण एवं उत्तरगुणों के धारक, संयमी गुरुदेव से संयम यात्रा की कुशल क्षेम पूछी जाती है तथा उन्हें द्वादश आवर्तनों के माध्यम से भावपूर्ण वन्दन किया जाता है। गुरु की शरण को साधक दोष-मुक्त बनने का उत्तम साधन समझता है। वह अपने द्वारा क्रोधादि के कारण हुई आशातना के लिए क्षमायाचना करता है। इसे अनुयोगद्वारसूत्र में 'गुणवत्प्रतिपत्ति' आवश्यक कहा गया है। गुणवत्प्रतिपत्ति का अर्थ है गुणवानों के प्रति आदरभाव। चतुर्थ प्रतिक्रमण आवश्यक के पूर्व साधक की दोष-निवारण हेतु भूमिका तैयार हो जाती है। उसका मन अपने दोषों के निवारण हेतु अथवा कहें प्रतिक्रमण हेतु व्याकुल हो जाता है और वह फिर अपने एक-एक अतिचार के लिए कहता है- मिच्छा मि दुक्कडं अर्थात् मेरा दुष्कृत निष्फल हो। मैं पुनः विभाव से स्वभाव में, दोष से निर्दोषता में, अतिक्रमण से प्रतिक्रमण में आना चाहता हूँ। प्रतिक्रमणकर्ता को यह ज्ञात होता है कि संसार में चार ही मंगल हैं- १. अरिहंत २. सिद्ध ३. साधु और ४. केवलिप्रज्ञप्ति धर्म। इन चार के अतिरिक्त धन-सम्पदा-परिजन आदि अशरण भूत हैं। इनके प्रति ममत्व त्याज्य है। इसलिए प्रतिक्रमण का साधक १८ प्रकार के पापस्थानों से विरत होता है और आजीविका के भी १५ कर्मादानों को छोड़ने का संकल्प करता है। वह हिंसा, झूठ, चोरी, मैथुन और परिग्रह से अपने सामर्थ्यानुसार विरति अथवा परिमाण करता है। जीवन चलाने के लिए वह भोगोपभोग और दिशा का भी परिमाण करता है। अपध्यान के निरर्थक आचरण, प्रमादपूर्वक आचरण, हिंसा को बढ़ावा, पाप कर्म के उपदेश आदि से अपने को पृथक् रखता है। वह मन, वचन और काया के दुष्प्रणिधान को त्यागने का संकल्प करके समभाव का आचरण करता है। वह विभिन्न दिशाओं में भाग-दौड़ को रोककर आस्रव-सेवन को मर्यादित करता है। अपना सामर्थ्य बढ़ाने के लिए आत्मपोषण हेतु चारों आहारों का त्याग करके ब्रह्मचर्य पूर्वक पौषध की आराधना करता है। माला आदि सुगन्धित द्रव्यों एवं कीमती पदार्थों से अपने को पृथक् रखता है, साधु की भाँति प्रतिलेखना एवं प्रमार्जन पूर्वक उच्चार प्रस्रवण की भूमि का उपयोग करता है। सामान्य जीवन में जो कुछ उसके पास है उसमें से अनासक्ति पूर्वक देने का भाव रखता है। साधु-साध्वी का योग मिलने पर निर्दोष दान Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org


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