Book Title: Jinmurti Pooja Sarddhashatakam
Author(s): Sushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti

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Page 168
________________ मुनिवरैः, साधकैश्च प्रियसुतकलत्रादिविभवं परित्यज्य प्रभातकाले सायंकाले च सरोवरतटे नदीतटे पुण्ये स्थले संस्थापिते मन्दिरेऽस्य स्तवनादिकं क्रियते । * हिन्दी अनुवाद - श्रीश्रर्हन् मूर्ति का माहात्म्य क्षीरनीर विवेकी विद्वान् भली भाँति जानते हैं । अतएव विद्वान् मुनीश्वर साधक सभी प्रिय पुत्र, पत्नी, विभव, धन-धान्य को विस्मृत करके या छोड़कर के भी नित्य निरन्तर प्रभात - मध्याह्न-सायं त्रिकाल ही पवित्र सरोवर नदी या अन्य प्राकृतिक रमणीय स्थान पर संस्थापित प्रासाद- मन्दिर में प्रभु के स्तुति-स्तवनादिक तथा सम्यक् आराधनादिक करते रहते हैं ।। ११६ ॥ [ ११७ ] मूलश्लोक: यथा वर्षारम्भे जलपरिभृते श्यामजलदे, समायाते हंसाः प्रहसितदिगन्ता निजरुचा । विमुच्येमां भूमि चिरपरिचितां कामजननीं श्रयन्ते प्रोन्मानं सततसुभगं मानसमलम् ।। ११७ ।। 1 संस्कृत भावार्थ:- येन प्रकारेण वर्षारम्भे कृष्णवर्णमेघे जलपूर्णे समागते निजरुचिर - रुचयो हंसाः सामान्यां श्रीजिन- १० --- १४५ ---

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