Book Title: Jinmurti Pooja Sarddhashatakam
Author(s): Sushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti

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Page 198
________________ संस्कृतभावार्थः-यो लाभोऽसंख्यैः प्रयासर्न लभ्यते । संचितपापर्यः स्वकीयं भाग्यं तुच्छं मनुते। विधिविडम्बनाभिर्दीर्घकालं यावत् निन्दा करोति, किन्तु भवदीय-कृपाभिः दुःखजालं तरति ।। १४६ ।। * हिन्दी अनुवाद-जो लाभ असंख्य प्रयासों से प्राप्त नहीं होता, वह आपकी कृपा से सहज प्राप्त हो जाता है । अपने द्वारा संचित पापों से जो व्यक्ति अपने आपको हतभाग्य मानता है, विधिविडम्बना से दीर्घकाल तक अपने भाग्य को कोसता रहता है, किन्तु आपकी कृपा से वह भी शीघ्र ही दुःखश्रेणियों को पार कर जाता है ।। १४६ ।। [ १४७ ] - मूलश्लोकःदिवि भुवि फणिलोके दुर्लभो यः पदार्थः , अतिवधितलाभ - भ्रंम्यते यत्र सार्थः । विधिगतिविपरीतात् प्राप्यते वाऽप्यनर्थः , अर्हन् तव दृष्टया स्याद्यतेऽसौ पदार्थः ॥ १४७ ॥ संस्कृतभावार्थः-यः पदार्थः स्वर्गलोके, भूलोके, नागलोके च दुर्लभो भवति । अत्यधिक लाभैः यत्र सार्थः भ्रम्यते । विधिविडम्बनातः असौ पदार्थः प्राप्यते न वेति --- १७५ ---

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