Book Title: Jinmurti Pooja Sarddhashatakam
Author(s): Sushilsuri
Publisher: Sushil Sahitya Prakashan Samiti

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Page 195
________________ देवेन्द्रायुरिव सुदीर्घा भवतु तदापि तव कीत्तिकौमुद्याः अन्तं कदापि न भविष्यति । * हिन्दी अनुवाद-हे अरिहन्तदेव ! आपकी महिमा आकाश की तरह अनन्त है। उसके विषय में भला मेरे जैसा अविकसित बुद्धि वाला' क्या कह या लिख सकता है ? मैं कल्पना करता हूँ कि यदि मेरे मुख में हजार या लाख भी जिह्वायें हों तथा मेरी आयु भी देवराज इन्द्र के समान हो तो भी मैं आपकी कीतिरूपी चन्द्रिका के छोर का वर्णन भी प्रस्तुत नहीं कर सकता हूँ ॥ १४२ ।। [ १४३ ] - मूलश्लोकःमनसि वचसि काये त्वां सदैवोद्वहन्तः , तव विशद गुणौघं विश्वतः ख्यापयन्तः । सुरमनुजरसायां त्वां सदा पूजयन्तः , प्रमुदितमुखपद्माः सन्ति सन्तः कियन्तः ? ॥ १४३ ॥ + संस्कृतभावार्थ:-मानसे वचने शरीरे सदा त्वामुद्वहन्तः, तव विशदां कीत्ति विश्वस्मिन् विस्तारयन्तः, स्वर्गभूलोके सदैव त्वां पूजयन्तः प्रसन्नमुखकमलाः सन्तपुरुषाः कियन्तः (परिगणितः) एव सन्ति ।। १४३ ।। --- १७२ ---

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