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८. संवरभावना देहदेवल में रहे पर देह से जो भिन्न है। है राग जिसमें किन्तु जो उस राग से भी अन्य है। गुणभेद से भी भिन्न है पर्याय से भी पार है। जो साधकों की साधना का एक ही आधार है।
मैं हूँ वही शुद्धातमा चैतन्य का मार्तण्ड हूँ। आनन्द का रसकन्द हूँ मैं ज्ञान का घनपिण्ड हैं। मैं ध्येय हूँ श्रद्धेय हूँ मैं ज्ञेय हूँ मैं ज्ञान हूँ। बस एक ज्ञायकभाव हूँ मैं मैं स्वयं भगवान हूँ।
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