Book Title: Jinendra Siddhant Manishi
Author(s): 
Publisher: ZZZ Unknown

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Page 7
________________ तथा जटिलताओंको हेतु होती प्रतित होती है तो तुरन्त उसके पक्षको त्यागकर उसमें सुधार कर लेते हैं । 'सत्य करना, सत्य देखना, सत्य विचारना, और सत्य के लिये सब कुछ सह लेना' है आपका जीवनादर्श, यही कारण है कि आप सदा सामाजिक संसर्गों से दूर किसी शान्त तथा एकान्त स्थान में मौन-युक्त रहना अधिक पसंद करते हैं। स्वयं अपने भीतर विचारना, करना और परीक्षा कर कर के उसमें यथावकाश परिवर्तन करते रहना आपके हृदय-प्रकर्षका सूत्र है।जी TRApp शिEEPE कि की मेरे पूज्य पिता पं० रूप चन्दजी गाय से आपको कभी कोई मौखिक उपदेश प्राप्त हुआ हो, ऐसा मैं नहीं जानता, तदपि न जाने क्यों आपके मनपर उनका इतना प्रबल प्रभाव है कि आप उनको अपना अध्यात्म-गुरु तथा परमोपकारी पाश्रय स्वीकार करते हैं। पूछने पर आपने केवल इतना ही बताया कि "जो उपदेश मुझे उनकी आंखोंसे मिलता है, वह किसी भी शास्त्र से नहीं मिलता। उनके जीवन में मुझे 'गृहवासी भी त्यागी' का प्रादर्श दिखाई देता है।" इसी प्रकार पूज्य क्षु० श्री गणेश प्रसादजी बीसे भी आपको कभी कोई मौखिक उपदेश प्राप्त नहीं हुआ और न ही कभी उनका प्रवचन सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुना, तथापि उनकी आंखों में आपने वह कुछ पढ़ा जो सम्भवतः बड़े-बड़े ज्ञानियों के प्रवचनों में भी आप पढ़ न सके। हीर पूज्य वीजी के हृदयस्पर्शी अनुभवों से लाभान्वित होने के लिये सन् १९५८ में आपने कुछ समय ईसरी अाश्रम में बिताया, परन्तु स्वास्थ्य ने वहाँ आपको अधिक काल रहने की आज्ञा नहीं दी। वहाँ से वापस लौटने पर मुजफ्फरनगर की जैन समाजने अापका सप्र म अाह्वाहन किया। सन् १९५६में वहाँ तीन महीने तक आपके अनुभवपूर्ण धारावाही प्रवचन चलते रहे, जिन्होंने आगे चलकर 'शान्तिपथ-प्रदर्शन' नामक एक संगोपांग ग्रन्थ का रूप धारण कर लिया। समाज में आपकी मांग बढ़ जानी स्वभाविक थी। फलतः अजमेर, टूण्डला, इन्दौर, सहारनपुर, नसीराबाद एवं अन्य कई स्थानोंपर और भी जाना पड़ा।

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