Book Title: Jinendra Siddhant Manishi Author(s): Publisher: ZZZ Unknown View full book textPage 1
________________ F41451461451461454541 मङ्गलम् 546454545454545454545 लौकिक कार्य हो या धार्मिक सभी में भाव की प्रधानता आचार्यों ने कही है। भाव विहीन क्रिया निष्प्राण तथा निरर्थक कही गई है। क्रिया यदि शरीर है तो भाव उसकी आत्मा है। वेद-पुराण इसका पार न पा सके और कविजन इसके गान के लिये शब्द न पा सके। श्रद्धा जिसका प्राण है, विनय जिसकी बुद्धि है, विवेक जिसका मन है, प्रम जिसका हृदय है, बहुमान जिसका अहंकार है, सेवा जिसकी इन्द्रियाँ हैं और आनन्द जिसका शरीर है, ऐसी "भक्ति” ही उस 'भाव' का सांगोपांग व्यक्तित्व है । पूजा इसका बाह्य रुप है और प्रेम आभ्यन्तर । मातृ - प्रेम - वत् स्वतः स्फुरित होने वाले इस भाव में कृत्रिमता को अवकाश कहां। काव्यकला, चित्रकला, मूर्तिकला, संगीतकला, वाद्यकला, नृत्यकला इत्यादि सकल कलायें उसकी क्षुद्र अभिव्यक्तिये मात्र हैं। मिलन के आभाव में सकल कला विकला है। भक्त का हृदय इन सबसे कैसे सन्तुष्ट हो सकता है । आभ्यन्तर कला ही सकला है। पूजा - भक्ति-विषयक इस छोटे से सकलन के रुप में अपना छोटा सा प्रेम प्रेमीजनों के मध्य वितरित करके सम्भवतः आपका यह भक्त आपकी उस महती कृपा को प्राप्त कर सके। जिसके प्रसाद से इसके हृदय में जगद् पाविका आपकी वह अचिन्त्य कला स्फुरित हो सके जिसके हस्तगत हो जाने पर कुछ भी करना शेष नहीं रह जाता। ( परम पूज्य वर्णी जी की लेखनी से )Page Navigation
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