Book Title: Jinagamo ki Bhasha Nam aur Swarup Author(s): K R Chandra Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf View full book textPage 5
________________ जिनागमों की भाषा नाम और स्वरूप. मतिम मइम मेधावी भगवता ततो परिता वेनि भवति सुणेति नातं पवेदितं रुदति वनि वदिस्सामि Jain Education International महावी महावी (नाम, सर्वनाम, काल एवं कृदन्त रूप) भगवया तओ परियावैति भवइ सुणेइ ( ध् ) मइम (--7---7--) नाय पवेइयं रुयंति वयति भगवया तओ परियात्रेति भवइ सुइ नाथ पवेइयं स्वइ वयंति मतिमं मेधावी For Private & Personal Use Only भगवता ततो परिनावेंति भवति सुणेति णानं पवेदितं रुदति वदति वइस्साभि वइस्सामि वदिस्सामि इन प्रयोगों से पता चलता है कि प्रो. याकोबी महोदय ने हस्तप्रतों में प्राप्त पाठों को बदला नहीं हैं और जो-जो पाठ पालि भाषा से साम्य रखते थे उन्हें भी उसी रूप में अपनाया है न कि उन्हें महाराष्ट्री प्राकृत भाषा के अनुरूप बनाने का प्रयत्न किया है। इसीलिए उन्होंने जैन प्राकृत (अर्थात् अर्धमागधी) के मूल पाठों को जहां पर भी उपलब्ध हो रहे हैं उन्हें भाषिक दृष्टि से यथावत् रखा है, परंतु शुब्रिंग महोदय ने उनके सामने याकोबी का आचारांग का संस्करण (१८८२ ए.डी.) विद्यमान होते हुए भी अपने (१९१० ए.डी.) के संस्करण में पालि के समान अर्धमागधी के पाठों को महाराष्ट्री में बदल डाला, जबकि उनको तो याकोबी से भी अधिक मात्रा में हस्तप्रतें, चूर्णीग्रंथ, टीका ग्रंथ इत्यादि प्राप्त हुए थे। श्री महावीर जैन विद्यालय के आगमों का संस्करण भी याकोबी के संपादन की पद्धति की पुष्टि कर रहा है शुबिंग महोदय ने प्राकृत व्याकरणकारों के महाराष्ट्री भाषा के ध्वनि परिवर्तन (मध्यवर्ती व्यंजन संबंधी) के नियमों का अक्षरश: पालन / अनुसरण किया है ऐसा स्पष्ट प्रतीत होता है। I 55 प्रो. शुचिंग महोदय ने 'इसिभासियाई = ऋषिभाषितानि" का भी संपादन किया है जो उनके द्वारा भी एक प्राचीन आगम ग्रन्थ माना गया है। परंतु उसमें अर्धमागधी शब्द प्रयोगों को सर्वत्र महाराष्ट्री प्राकृत में नहीं बदला है। इस प्रकार के कितने ही प्रयोग उसमें मिलते हैं जिनमें से कतिपय प्रयोग नीचे दिये जा रहे हैं जो शुबिंग महोदय के आचारांग भाग - १ में कहीं पर भी नहीं मिलेंगे, जबकि प्रो. याकोबी के आचारांग में यत्र-तत्र अनेक बार प्राप्त www.jainelibrary.orgPage Navigation
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