Book Title: Jinagamo ki Bhasha Nam aur Swarup Author(s): K R Chandra Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf View full book textPage 3
________________ . . | जिनागमों की भाभा नाम और स्वरूप का 53 परिवर्तन नहीं आ सका। आगमों की अर्धमागधी तो महाराष्ट्री प्राकृत से इतनी प्रभावित हुई है कि इसका मूल स्वरूप भी निश्चित करना बहुत दुाकर हो गया है। आगम प्रभाकर मुनि श्री पुण्यविजय जी को तो ऐसा कहने को बाध्य होना पड़ा कि आगमों की मूल भाषा में बड़ा ही परिवर्तन आ गया है। मूल भाषा खिचड़ी ही बन गयी है। अब हमें यह दर्शाना है कि मौलिक अर्धमागधी में मध्यवर्ती व्यंजनों की ध्वनि-परिवर्तन संबंधी क्या अवस्था थी। सर्वप्रथम तो यह कहने को बाध्य होना पड़ता है कि किसी भी प्राकृत व्याकरणकार ने अर्धमागधी प्राकृत को कोई विशेष स्थान (अपने-अपने प्राकृत व्याकरण में) नहीं दिया है। सभी ने महाराष्ट्री, शौरसेनी, पैशाची, चूलिका और हेमचन्द्राचार्य ने अपभ्रंश के भी नियम दिये हैं। हेमचन्द्राचार्य स्वयं जैन थे, उन्हें जिनागमों का विशेष ज्ञान भी था, परंतु उन्होंने भी मध्यवर्ती व्यंजनों के ध्वनि-परिवर्तन संबंधी विशेष तौर पर कुछ भी नहीं लिखा है, यह एक बड़े ही आश्चर्य की बात है। उन्होंने इसे 'आर्ष' भाषा अवश्य कहा है और इसमें सभी विधियां लागू होती हैं-ऐसा कहकर के इस आर्ष भाषा को उन्होंने बड़ी ही स्वतन्त्रता दे दी। कहां पालि भाषा, अशोक के शिलालेखों, हाथी गुंफा और मथुरा के लेखों को भाषा और कहाँ यह अनियमित आर्ष-अर्धमागधी भाषा? उन्होंने आर्ष भाषा के दो मुख्य लक्षण अवश्य दिये हैं- १. पुं. अकारान्त की प्रथमा एक वचन की विभक्ति-ए और र कार का लकार हो जाना। इसके सिवाय जगह-जगह पर मूलसूत्रों की वृत्ति में आर्ष की कुछ विशेषताएं दर्शायी गयी है, परंतु शब्दों के मध्यवर्ती व्यंजनों के लिए तो महाराष्ट्री प्राकृत के नियम ही लागू होते हों ऐसा उनके प्राकृत व्याकरण के नियमों से स्पष्ट ही प्रतीत होता है। प्राचीन अर्धमागधी ग्रंथों में भूतकाल (सामान्य भूत, अनद्यतन भूत और परोक्ष भूत) के प्रत्ययों वाले प्रयोग कहीं-कहीं पर अल्पांश में मिलते हेत्वर्थक कृदन्त के लिए वैदिक परंपरा से प्राप्त–त्तए-इत्तए,एतए (संस्कृत –तवे, तवै, --त्वायै) प्रत्यय वाले प्रयोग बार-बार मिलते हैं जो अन्य प्राकृतों में मिलते ही नहीं हैं। पालि में भी यह प्रत्यय नहीं मिलता है। इस दृष्टि से पालि की अपेक्षा अर्धमागधी में भाषा की प्राचीनता सुरक्षित रही है। अब जो मुख्य मुद्दा अर्धमागधी के लिए ध्यान देने योग्य है वह है शब्दों में मध्यवर्ती व्यंजनों की अनेक प्रयोगों में यथावत् स्थिति जो उसके लिए शौरसेनी और महाराष्ट्री प्राकृत से सर्वथा एक भिन्न भाषा होने का महत्त्वपूर्ण प्रमाण है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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