Book Title: Jinagamo ki Bhasha Nam aur Swarup Author(s): K R Chandra Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf View full book textPage 6
________________ 50. जिनवाणी- जैनागम-साहित्य विशेषाङ्क हो रहे हैं। प्रो. याकोबी द्वारा प्रयुक्त कुछ और विशेष प्रयोग नीचे दिये जा रहे हैं जो संपादन की दृष्टि से विशिष्ट प्रकार के हैं। यह तुलना ऐसे प्रयोगों की हैं जिनमें व्यंजनों को याकोबी ने टेढा (italicise) किया है और उन्हें इस प्रकार समझाया गया है कि प्राचीन ताड़पत्र की प्रतों में मध्यवर्ती व्यंजन यथावत् पाये जाते हैं, परंतु उत्तरकालीन कागज की प्रतों में उनमें महाराष्ट्री प्राकृत के नियमों के अनुसार ध्वनि परिवर्तन ( 'लोप' और 'ह') कर दिया गया है। शुब्रिंग महोदय के सामने २८ वर्ष पुराना याकोबी का संस्करण था और उन्होंने याकोबी की तुलना में मूल ग्रंथ की अन्य हस्तप्रतें भी प्राप्त की थीं, चूर्णी और वृत्तियों का भी उपयोग किया था, तब फिर भाषा के प्राचीन रूपों को क्यों बदल डाला ? होना तो ऐसा चाहिए था, कि याकोबी के सिवाय उपयोग में ली गयी अन्य प्रतों में जहां-जहां पर भी भाषिक दृष्टि से प्राचीन पाठ (पालि के समान) मिलते थे उन्हें स्वीकार करके संशोधन की प्रक्रिया को आगे बढ़ाना था, परंतु इसके बदले में उन्होंने अर्धमागधी की शब्दावली को पूर्णत: महाराष्ट्री में बदल दिया। जब उन्होंने 'इसि भासियाई' का सम्पादन किया तो उसमें भी अनेक स्थलों पर मिल रहे मौलिक प्रयोग वैसे ही रखे, उन्हें आचारांग की तरह क्यों नहीं बदला और न ही बाद में इस विषय संबंधी कोई स्पष्टीकरण ही प्रकाशित किया। इसका क्या कारण माना जाना चाहिए ? प्रमाद या शैथिल्य या अज्ञानता या अवहेलना ? प्रो. याकोबी के द्वारा स्वीकृत इस प्रकार के प्रयोगों की विपुलता में से कुछ उदाहरण तुलनात्मक दृष्टि से देखिए याकोबी शुब्रिंग पिशल १.१.१.२ १.५.१.१ १.२.१.३ १.१.१.२ अन्नतरीओ अविजाणतो जीविते नातं १.२.१.१ धूता १.१.५.३ १.२.१.१ १.१.५.३ १.१.५.४ १.६.५.४ अन्नयरीओ अन्नयरीओ अविजाणओ अविजाणओ Jain Education International नाय धूया पवुच्चइ पिया मुच्चइ विहिंसड तुलनात्मक प्राकृत व्याकरण का पेरेग्राफ जीविए जीविए नाय धूया पदुच्चइ पिया मुच्चइ विहिंसइ ४३३ ३९८ पवुच्चति ५४४ पिता ३९१ मुच्चति ५६१ विहिंसति ५०७ वहि वयंति वयन्ति ४८८ इससे यह स्पष्ट होता है कि प्रो. शुबिंग महोदय ने और उनके पूर्व प्रो. पिशल महोदय ने अर्धमागधी प्राकृत के मध्यवर्ती व्यंजनों में परिवर्तन करके या हस्तप्रतों में से ऐसा पाठ स्वीकार करके अर्धमागधी प्राकृत के साथ For Private & Personal Use Only ३४९ ९३ ३५७ www.jainelibrary.orgPage Navigation
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