Book Title: Jinagamo ki Bhasha Nam aur Swarup
Author(s): K R Chandra
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

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Page 7
________________ - | जिनागों की भाषा : नाम और स्वरूप... विद्वत्तायुक्त सहानभूति पूर्वक व्यवहार नहीं किया है। प्रतियों में उपलब्ध मूल अर्धमागधी के पाठों के बदले में उपलब्ध विकृत पाठों को महत्त्व देकर महाराष्ट्री प्राकृत के नियमों को (ध्वनि परिवर्तन संबंधी) ही अर्धमागधी के लिए भी उपयुक्त होने का कृत्रिम उपक्रम किया है। ऐसी अवस्था में पिशल महोदय के द्वारा अर्धमागधी के विषय में दिये गये ध्वनि परिवर्तन संबंधी नियमों को बदलने की अनिवार्यता बन जाती है। भावी भाषा विद्वानों से यह विनति है कि वे इस कार्य को पूरा (शुद्ध) करने में अपनी विद्वत्ता का सदुपयोग करने की कृपापूर्वक हिम्मत करें और अति धीरज के साथ परिश्रम करें एवं भाषा का मूल स्वरूप प्रस्थापित करें। आगम प्रभाकर मुनि श्री पुण्यविजयजी को ही यह श्रेय मिलता है कि उन्होंने अर्धमागधी के मौलिक स्वरूप में किस प्रकार कितना परिवर्तन या कितनी विकृति आयी उसे आज से पचास वर्ष पूर्व हमारे सामने प्रस्तुत करके इस दिशा में संशोधन करने की प्रवृत्ति को मार्गदर्शन दिया।" इस चर्चा से स्पष्ट हो रहा है कि मूल अर्धमागधी (भ. महावीर की वाणी) पालि भाषा से मिलती जुलती थी, परंतु परवर्ती कालक्रम में इसका स्वरूप बदल गया या बदल दिया गया। अब हम कुछ अन्य आगम ग्रंथों के अन्तर्गत पाये जाने वाले अर्धमागधी के पालि भाषा के समान मूल पाठों का भी अवलोकन करेंगे। 'सूत्रकृतांग' द्वितीय अंग एवं द्वितीय आगम ग्रंथ है और वह भी एक प्राचीन रचना है। इसी प्रकार ‘दशवैकालिक' भी प्राचीन कोटि का माना जाता है। इधर उन ग्रंथों, उनकी चूर्णियों-वृत्तियों इत्यादि में उपलब्ध होने वाले वे पाठ दिये जा रहे हैं जिन पर महाराष्ट्री प्राकृत के नियम सामान्यत: सर्वत्र नहीं लगाये जा सकते हैं। वे शब्द प्रयोग इस प्रकार हैं और उनके सामने उनके संस्करणों का संकेत कर दिया गया है। यह विवरण मध्यवर्ती व्यंजनों से संबंधित है। --- एकओ (सूत्रकृ.१.१.१.१८); एके (१.१.१.९) एकओं (सू.क. पुण्यवि.१.१.१.१८) -- आगता (१.१.१.१६), मिगा (१.१.२.१३) --- आचरंति (१.२.३.२३) -ज्- विजिउं (दशवैकालिक के खं.३ नामक प्रति में पाठान्तर) - -त्- जीवितं सू.कृ. की (१.१.१.५) चूर्णी में प्राप्त पाठान्तर} नियती(१.१.१.१६)" महब्भूता (सू.कृ पुण्यवि. १.१.१.७) सत्थोवपातिया(१.१.१.११) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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