Book Title: Jinagamo ki Bhasha Nam aur Swarup
Author(s): K R Chandra
Publisher: Z_Jinavani_003218.pdf

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Page 13
________________ जिनागमों की भाषा ११. सूत्रकृ. या सूत्रकृ जम्बुविजय, १९७८ १२. सूत्र पुण्यवि सूत्रकृतांग सूत्र, सं. मुनि पुष्यविजय, प्राकृत टेक्स्ट सोसायटी. नाम और स्वरूप 63 सूत्रकृतांग सूत्र महावीर जैन विद्यालय, बम्बई सं मुि अहमदाबाद, १३. दशवै.- दशवैकालिक सूत्र महावीर जैन विद्यालय, बम्बई, ग्रंथमाला नं. १५, १९७७ १४. चूर्णियों में से जो भी पाठ उद्धृत किये गये हैं वे मूल ग्रंथ के संस्करण में पद टिप्पणों में उद्धृत पाठान्तरों से लिये गये हैं। १५. इससे यह दर्शाने का हेतु है कि आगे यहां पर अन्य प्रयोगों के सामने ग्रंथ के नाम का उल्लेख नहीं है। वे पाठ म. जै. वि. बम्बई से प्रकाशित सूत्रकृतांग के संस्करण में से ही उद्धृत किये गये हैं । १६. प्राचीन आगमों के संस्करणों में हस्तप्रतों के पाठों के आधार पर जहां पर भी अघोष व्यंजनों का घोष व्यंजनों में परिवर्तन मिलता है वह शौरसेनी के प्रभाव के कारण नहीं हुआ है परंतु प्रारंभिक अवस्था में ही मागधी प्राकृत में घोषीकरण के प्रयोग यत्र-तत्र मिलने शुरु हो गये थे। यही प्रवृत्ति आगे जाकर शौरसेनी का मुख्य लक्षण बन गयी। वैसे भी अर्धमागधी प्राकृत मागधी और तत्पश्चात् की शौरसेनी के बीच (कालानुक्रम से भाषिक विकास) को अवस्था में अपना स्थान रखती है। १७. अगस्त्यसिंह चूर्णी के उल्लेख के लिए देखिए म.जे. विद्यालय द्वारा प्रकाशित दशवैकालिक सूत्र (ग्रंथांक १५, ई. सन् १९७७) के प्रारंभ में उपयोग में लिए गये ग्रंथों और हस्तप्रतों की सूचि, पृष्ठ नं ८९ १८. (i) अर्धमागधी प्राकृत की प्राकृत वैय्याकरणों ने अवहेलना की। (ii) परिणामस्वरूप उसका कोई स्वतंत्र व्याकरण हमारे सामने नहीं आया। (iii) हेमचन्द्राचार्य एक महान् जैन विभूति और विविध विद्याओं के प्रकाण्ड विद्वान होते हुए भी उन्होंने अपने ही धर्म के प्राचीनतम शास्त्रग्रंथों यानी 'आगमों' की भाषा की अवहेलना की, जबकि अन्य प्राकृत भाषाओं के मुख्य मुख्य लक्षणों पर यथायोग्य चर्चा की । (iv) मौखिक परंपरा भ महावीर की वाणी की मुख्य भाषा को सुरक्षित नहीं रख सकी। (v) अर्धमागधी प्राकृत का अन्य प्राकृतों की तरह कोई व्याकरण ही नहीं रचा गया। अतः उसने अपनी विशिष्टता कालानुक्रम और स्थल परिवर्तन के कारण वहां की भाषाओं से प्रभावित होकर खो डाली। (vi) आगम ग्रंथों के सम्पादकों के सामने यह बहुत बड़ी समस्या थी, अत: उनको महाराष्ट्री प्राकृत के ध्वनि परिवर्तन के नियमों को ही अर्धमागधी पर भी विवशन से लागू करना पड़ा। (vii) हस्तप्रतों के पाठों में इतनी अव्यवस्था और विविधता थी कि किस पाठ को मौलिक माना जाय यह समझना एक जटिल प्रश्न हो गया और तब फिर संपादकों को प्रचलित महाराष्ट्री प्राकृत के नियनों का ही विवश होकर सहारा लेंगा पड़ा और उसका परिणाम यह हुआ कि गूल अर्धी प्राकृत महाराष्ट्री शब्दावली से महदेश में प्रभावित हो गयी । हस्तप्रतों में जो भी प्राचीन पाठ पालि भाषा के समान बन्न गये थे उन्हें कृत्रिम और बाद में बदले हुए तथा संस्कृत भाषा से प्रभावित होने की विद्वानों की एक भ्रान्त धारणा बन गयी। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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