Book Title: Jinabhashita 2009 05 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 2
________________ पर-सम्पदा - हरण निम्नकोटि का कर्म जब कभी धरा पर प्रलय हुआ यह श्रेय जाता है केवल जल को धरती को शीतलता का लोभ दे इसे लूटा है, इसीलिए आज यह धरती धरा रह गई न ही वसुंधरा रही न वसुधा ! और वह जल रत्नाकर बना है बहा- बहा कर धरती के वैभव को ले गया है। पर-सम्पदा की ओर दृष्टि जाना अज्ञान को बताता है, और पर-सम्पदा हरण कर संग्रह करना मोह-मूर्च्छा का अतिरेक है। यह अति निम्न कोटि का कर्म है स्व-पर को सताना है, नीच - नरकों में जा जीवन बिताना है । यह निन्द्य कर्म करके जलधि ने जड़-धी का, बुद्धि-हीनता का परिचय दिया है अपने नाम को सार्थक बनाया है । अपने साथ दुर्व्यवहार होने पर भी प्रतिकार नहीं करने का संकल्प लिया है धरती ने, इसीलिए तो धरती Jain Education International सर्व-सहा कहलाती है सर्व-स्वाहा नहीं- आचार्य श्री विद्यासागर जी और सर्वं-सहा होना ही सर्वस्व को पाना है जीवन में सन्तों का पथ यही गाता है। न्याय पथ के पथिक बने सूर्य - नारायण से यह अन्य देखा नहीं गया, सहा नहीं गया और अपने मुख से किसी से कहा नहीं गया! फिर भी, अकर्मण्य नहीं हुआ वह बार-बार प्रयास चलता रहा सूर्य का, अन्याय पक्ष के विलय के लिए न्याय पक्ष की विजय के लिए। लो! प्रखर- प्रखरतर अपनी किरणों से जलधि के जल को जला - जला कर सुखाया, चुरा कर भीतर रखा हुआ अपार धन-वैभव दिख गया सुरों, सुराधिपों को! इस पर भी स्वभाव तो... . देखो, जला हुआ जल वाष्प में ढला जलद बन जल बरसाता रहा और अपने दोष छद्म छुपाता रहा जलधि को बार-बार भर कर...! मूकमाटी (पृष्ठ १८९-१९१) से साभार For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 ... 36