Book Title: Jinabhashita 2007 09 Author(s): Ratanchand Jain Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra View full book textPage 2
________________ आचार्य श्री विद्यासागर जी के दोहे 82 काला पड़ता जा रहा, भारत का गुरु भाल। भारी बढ़ता जा रहा, भारत का ऋण भार॥ 83 वर्णों का दर्शन नहीं, वर्णों तक ही वर्ण। चार वर्ण के थान पर, इन्द्र धनुष से वर्ण ॥ 84 वर्ण -लाभ से मुख्य है, स्वर्णलाभ ही आज। प्राण बचाने जा रहे, मनुज बेच कर लाज॥ 85 विषम पित्त का फल रहा, मुख का कडुवा स्वाद। विषम वित्त से चित्त में, बढ़ता है उन्माद ॥ 86 73 आप अधर मैं भी अधर, आप स्व वश हो देव। मुझे अधर में लो उठा, परवश हूँ दुर्दैव॥ 74 मंगल में दंगल बने, पाप कर्म दे साथ। जंगल में मंगल बने, पुण्योदय में भ्रात!॥ 75 धोओ मन को धो सको, तन को धोना व्यर्थ। खोओ गुण में खो सको, धन में खोना व्यर्थ ॥ 76 त्रिभुवन - जेता काम भी, दोनों घुटने टेक। शीश झुकाते दिख रहा, जिन-चरणों में देख ॥ 77 तोल तुला मैं अतुल हूँ, पूरण वर्तुल व्यास। जमा रहूँ बस केन्द्र में, बिना किसी आयास॥ 78 व्यास बिना वह केन्द्र ना, केन्द्र बिना ना व्यास। परिधि तथा उस केन्द्र का, नाता जोड़े व्यास॥ 79 केन्द्र रहा सो द्रव्य है, और रहा गुण व्यास। परिधि रही पर्याय है, तीनों में व्यत्यास॥ 80 व्यास केन्द्र या परिधि को, बना यथोचित केन्द्र। बिना हठाग्रह निरखत, निज में यथा जिनेन्द्र॥ 81 वृषभ चिन्ह को देखकर, स्मरण वृषभ का होय। वृषभ-हानि को देखकर, कषक-धर्म अब रोय॥ कानों से तो हो सुना, आँखों देखा हाल। फिर भी मुख से ना कहे, सज्जन का यह ढाल॥ 87 दीप कहाँ दिनकर कहाँ, इन्दु कहाँ खद्योत। कूप कहाँ सागर कहाँ, यह तोता प्रभु पोत॥ 88 धर्म धनिकता में सदा, देश रहे बल जोर। भवन वही बस चिर टिके, नींव नहीं कमजोर। 89 बाल गले में पहुँचते, स्वर का होता भंग। बाल, गेल में पहुँचते, पथ-दूषित हो संघ 90 बाधक शिव-पथ में नहीं, पुण्य कर्म का बन्ध। पुण्य-बन्ध के साथ भी, शिव पथ बढ़े अमन्द। 'पूर्णोदयशतक' से साभार Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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