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प्रवचन
ज्ञान और अनुभूति
आचार्य श्री विद्यासागर
Tक्षय तृतीया से जो यह श्रुत की वाचना | ही पर्याप्त नहीं है।
जका मंगल कार्य प्रारंभ हुआ था वह इस | शब्द सुनने के लिये कान पर्याप्त हैं मंगलमय श्रुतपंचमी के अवसर पर सानंद | लेकिन तविषयक जानकारी के लिए श्रुत के सम्पन्न हुआ। आत्मा के पास यही एक ऐसा | लिए मन आवश्यक है। श्रुत यह मन का विषय धन है जिसके माध्यम से धनी कहलाता है। है। मन लगाकार जब हम शब्दों को सुन लेते जब यह श्रुतरूपी धन जघन्य अवस्था को | हैं तब कहीं जाकर आचार्यों के भाव हमारी प्राप्त हो जाता है तो वह आत्मा दरिद्र हो जाता समझ में आते हैं। मन लगाने का पुरुषार्थ है। आगम ग्रंथों की वाचना के समय अनिवार्य है। केवल वक्ता अपनी बात को निगोदिया जीव का प्ररूपण करते समय जो रखता जाये और श्रोता मात्र सुनता जाये, मन बताया गया उसे सुनकर लग रहा था कि न लगाये तो कल्याण संभव नहीं है। आत्मा का यह पतन निगोद में अंतिम छोर यहाँ अभी-अभी कई लोगों ने कहा कि को छू रहा है। लेकिन दरिद्रता का
सकते। मात्र शब्द सुनने में आ अर्थ धन का अभाव होना नहीं उन्नति हम चाहते हैं, लेकिन उन्नति कैसे होगी यह जानना
जाते हैं। शब्द इस अनंत अर्थ है. बल्कि धन की न्यूनता या चाहिए। श्रुत को आधार बनाकर चलेंगे तभी श्रुत के द्वारा वहाँ पहुँच को अभिव्यक्त करने में सहाअत्यधिक कमी होना है। एक | जायेंगे जहाँ तक महावीर भगवान् पहुँचे हैं। कैवल्य होने से पूर्व यक बनते हैं। अनंत की पैसा भी पैसा है, वह रुपये
बारहवें गुणस्थान के अंतिम समय तक श्रुत का आधार प्रत्येक अभिव्यक्ति श्रुत के द्वारा शब्दों का अंश है। रुपया वह भले साधक को लेना अनिवार्य है। मात्र उपदेश देने या सनने से ज्ञान
के माध्यम से की जाती है। हो न हो लेकिन रुपये की नहीं बढ़ता। ज्ञान को ऊर्ध्वगमन संयम के द्वारा मिलता है। हम
बहुत छोटी सी किताब प्राप्ति में सहयोगी है। इसी
है लेकिन इसके अर्थ की ओर प्रकार ज्ञान का पतन कितना श्रुतज्ञान को केवलज्ञान में ढाल सकते हैं। लेकिन आज तक कोई
जब देखते हैं तो लोक और भी हो किन्तु जीव में कभी व्यक्ति ऐसा नहीं हुआ जिसने संयम के बिना ही श्रृतज्ञान को
| अलोक दोनों में जाकर भी ज्ञान का अभाव नहीं हो | केवलज्ञान रूप दिया हो।
हमारा ज्ञान छोर नहीं छू पाता। सकता। यदि वास्तव में ज्ञान | सन 1981 में आचार्यश्री के द्वारा दिया गया प्रवचन वह ज्ञेयरूपी महासागर जिसके को धन मानकर हम उसका श्रुतपञ्चमी के विशेष संदर्भ में प्रस्तुत है।
ज्ञान में अवतरित हो जाता है संरक्षण और संवर्धन करें तो
वह समाधिस्थ हो जाता है। उस आत्मा की ख्याति बढ़ती चली जायेगी। यह वाचना जो हुई है पंडित जी ने अच्छे ढंग ज्ञान की महिमा अपरम्पार है। उस अर्थ की आत्मा में प्रकाश आ जायेगा कि वह विश्व से इसे सुनाया है। यह सारा का सारा शब्द प्राप्ति के लिए जो परमार्थभूत है यह सब को भी प्रकाशित कर देगा।
ही तो है जो कानों से सुनने में आया है। शब्द संकेत दिये गये हैं। इन संकेतों को सचेत श्रुतपंचमी के दिन अपने चिंतन के पढ़ने में नहीं आ सकते, पढ़ने में जो जाते होकर यदि हम पकड़ लेते हैं तो ठीक है माध्यम से श्रुत के बारे में बात समझनी हैं वह केवल उन शब्दों के संकेत हैं और ये | अन्यथा कुछ नहीं है। जिसका मन मूर्छित है चाहिए। स्पर्शन इन्द्रिय का विषय आठ प्रकार संकेत सारे के सारे अर्थ को लेकर हैं। अर्थात् पंचेन्द्रिय के विषयों से प्रभावित है वह का स्पर्श है, रसना इन्द्रिय का विषय पाँच | श्रुतभक्ति में आया है- “अरिहंत भासियत्थं इन संकेतों को पकड़ कर भी भावों में प्रकार का रस है, घ्राण इन्द्रिय का विषय दो | गणधरदेवेहिं गंथियं सम्मं, पणमामि भत्ति- अवगाहित नहीं हो पाता। अंतर्महूर्त के भीतर प्रकार की गंध है, चक्षु इन्द्रिय का विषय पांच जत्तो सुदणाणमहोवयं सिरसा।" अर्थात् अरि- वह जो सर्वार्थसिद्धि के देव हैं उन्हें भी जिस प्रकार का रूप है और श्रोत्र इन्द्रिय का विषय हंत परमेष्ठी के द्वारा अर्थ रूप श्रुत का | सुख का अनुभव नहीं हो सकता, उससे है शब्द। पांचों इन्द्रियाँ हमारे पास हैं, लेकिन व्याख्यान हुआ है और इसे गणधर देव ने | बढ़कर सुख का अनुभव एक संज्ञी पंचेन्द्रिय सम्यग्दर्शन की प्राप्ति के लिये जब पंडित गंथकर ग्रंथ का रूप दिया है। ऐसे महान् श्रुत मनुष्य जो संयत है या संयंतासंयत है, वह जी (पं. कैलाशचन्द्र जी सिद्धांत शास्त्री
को भक्तिपूर्वक मस्तक झुकाकर हम प्रणाम | अनुभव कर रहा है। बनारस) वाचना कर रहे थे प्रातः काल, तब कते हैं। अर्थ हमेशा अनन्तात्मक होता है जैसे सूर्य प्रकाश देता है और प्रकाश जयधवलाकार ने बहत अच्छे ढंग से कहा कि और अनंत को ग्रहण करने की क्षमता हमारे | से कार्य होता है, किन्तु सूर्य के प्रकाश देने पाँच इन्द्रियों का होना आवश्यक है पर इतना पास नहीं है। उस अनंत को हम सुन नहीं | मात्र से हमारा कार्य पूरा नहीं होता। सूर्य का
-मई 2001 जिनभाषित 9
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