Book Title: Jinabhashita 2001 05
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 25
________________ अर्थ - बादर निगोद जीव और सूक्ष्म निगोद जीव ये परस्पर बद्ध और स्पष्ट होकर रहते हैं। तथा वे अनंत जीव हैं जो मूली, थूअर तथा अदरख आदि के निमित्त से होते हैं। पं. रतनचंद जी मुख्तार, जीवकांड की टीका पृष्ठ 270 पर लिखते हैं- मूली, थूहर आईक आदि तथा मनुष्य आदि के शरीरों में असंख्यात लोकप्रमाण निगोद शरीर होते हैं। वहाँ एक-एक निगोद शरीर में अनंतानंत बादर निगोद जीव और सूक्ष्म निगोद जीव प्रथम समय में उत्पन्न होते हैं। ये एक शरीर में बद्ध स्पृष्ट होकर रहते हैं। आलू में रहने वाले ये जीव, आँखों से दिखाई नहीं पड़ते। इनके शरीर की अवगाहना मनांगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण होती है अतः ये दूरबीन आदि यंत्रों के द्वारा भी दिखने में नहीं आते हैं। इस प्रकार आलू के या अन्य किसी भी कन्दमूल के एक कण का भक्षण करने में भी अनन्तानन्त निगोदिया जीवों की हिंसा होती है। शंका- ऐसा सुनते हैं कि तीर्थंकर अपनी गृहस्थ अवस्था में णमोकार मन्त्र का उच्चारण नहीं करते। जबकि भगवान पार्श्वनाथ ने सर्प के जोड़े को णमोकार मन्त्र सुनाया था। स्पष्ट करें। समाधान चौबीस तीर्थंकरों के चरित्र का वर्णन करने वाला सबसे प्राचीन एवं प्रामाणिक ग्रन्थ उत्तरपुराण ( रचयिता आचार्य गुणभद्र) है। इसमें भगवान पार्श्वनाथ के चरित्र में इस प्रकार लिखा है- 'नागी नागह संप्राप्तशमभावी कुमारत (77/118) बभूवतुरहीन्द्रश्च तत्पत्नी च पृथुश्रियो ( 77/119)। अर्थ- सर्प और और सर्पणी कुमार के उपदेश से शान्तिभाव कोप्राप्त हुए और मरकर बहुत भारी लक्ष्मी को धारण करने वाले धरणेन्द्र और पद्मावती हुए । भावार्थभगवान पार्श्वनाथ जब क्रीड़ा करने के लिय नगर से बाहर गये थे तब उनके साथ एक सुभौम कुमार भी थे। वे जब तपस्वी के पास पहुँचे तब उसके अहंकार को देखकर सुभौमकुमार ने उस तपस्वी को उपदेश दिया। उस उपदेश को सुनकर सर्प और सर्पणी शान्तिभाव को प्राप्त हुए और मरकर धरणेन्द्र और पद्मावती हुए । इन वचनों के अनुसार - ग्रन्थसमीक्षा सदलगा के संत Jain Education International कवि श्री लालचन्द्र जैन राकेश प्रकाशक ज्ञानोदय विद्यापीठ वल्लभ नगर, बी. एच.ई.एल. भोपाल, म.प्र. एवं दिगम्बर जैन मुनि संघ सेवा समिति, महावीर विहार, गंज बासोदा . (म.प्र.) मूल्य- 50 रुपये, पृष्ठ 204 कवि ने सहज, सुबोध प्रसादगुणमयी विशिष्ट शैली में एक ऐसे महान् सन्त परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी की जीवनी अपनी काव्य धारा से निःस्यूत की है, जिनसे सम्पूर्ण भारत वर्ष भगवान पार्श्वनाथ ने सर्प के जोड़े को णमोकार मन्त्र नहीं सुनाया था, यह स्पष्ट होता है। शंका- क्या आयु कर्म का बन्ध जीव को एक पर्याय में एक बार ही होता है या अधिक बार भी होता है ? " " " " समाधान- एक जीव के एक भव में आयु बन्ध के योग्य आठ अपकर्ष होते हैं। इन आठ अपकर्षो में आयु कर्म का बन्ध अधिक से अधिक आठों बार भी हो सकता है जैसा कि श्री धवल पु. 10 पृष्ठ 233 पर कहा है 'कर्मभूमि के मनुष्य और तिर्यच अपनी भुज्यमान आयुस्थिति के दो विभाग बीत जाने पर वहाँ से लेकर असंक्षेपाद्धा काल तक परभव संबंधी आयु को बाँधने के योग्य होते हैं। उनमें आयुबन्ध के योग्य काल के भीतर कितने ही जीव आठ बार कितने ही सातबार, कितने ही छहबार कितने ही पांचबार, कितने ही चार बार कितने ही तीनबार कितने ही दो बार कितने ही एकबार आयु बन्ध के योग्य परिणामों से परिणत होते हैं, शेष निरुपक्रमायुष्क जीव अपनी भुज्यमान आयु में छह माह शेष रहने पर आयु बंध के योग्य होते हैं। यहाँ भी इसी प्रकार आठ अपकर्षों को कहना चाहिए। इससे स्पष्ट होता है कि चारों ही गतियों के जीव अधिक से अधिक आठ बार और कम से कम एक बार आयुबन्ध अवश्य करते हैं । इतना अवश्य है कि एक जीव एक भव में एक ही आयु का बन्ध करता है (देखें कर्मकाण्ड गाथा 642) अर्थात् यदि कोई जीव एक भव में आठ बार आयु कर्म बन्ध करता है तो उसने प्रथम बार में जिस आयु का बन्ध किया होगा अन्य बारों में उसी आयु का बन्ध होगा । अर्थात् यदि प्रथम अपकर्ष में देवआयु का बन्ध किया है तो अन्य अपकर्षो में आयु बन्ध होता है तो देव आयु का ही होगा अन्य आयु का नहीं। यदि आठों अपकर्ष कालों में आयु बंध न हो तो अंतिम असंक्षेपाद्धा काल में तो आयु बंध हो ही जाता है। 'सद लगा के के सन्त' 1/205, प्रोफेसर्स कालोनी, आगरा-282002 (उ.प्र.) के आबालवृद्ध सभी सुपरिचित हैं। रचनाकार ने इस कृति के द्वारा अनेक अपरिचित या अल्पज्ञात प्रसंगों का ज्ञान कराकर जन सामान्य के शान में वृद्धि की है। हिन्दी भाषी क्षेत्र के पाठकों को तो रचना सुवोध है ही, दक्षिणभारत में भी लोकप्रिय हो सकेगी। इस उपयोगी काव्यकृति के रचयिता और प्रकाशक दोनों साधुवाद के पात्र हैं। रचना कथ्य और अभिव्यंजना- शिल्प की दृष्टि से प्रभावो त्पादक है। देशज शब्द और मुहावरे नगीने की भाँति जड़े हुए हैं। 'राकेश' जी की प्रतिभा और वैदुष्य की ज्ञापक इस कृति का सर्वत्र स्वागत होगा, ऐसा विश्वास है। डॉ. भागचन्द जैन 'भागेन्दु' For Private & Personal Use Only मई 2001 जिनभाषित 23 www.jainelibrary.org

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