Book Title: Jinabhashita 2001 05
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Sarvoday Jain Vidyapith Agra

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Page 36
________________ आचार्य श्री विद्यासागर के सुभाषित प्रभु का अवलम्बन लेकर प्रभु बना जा सकता है। पंच परमेष्ठी की आराधना विषय कषायों से बचने के लिये होती है। पाप से भीति बिना भगवान से प्रीति नहीं और भगवान् से प्रीति बिना आत्मा की प्रतीति नहीं। अपने मित्र और आत्मीय बन्धु को देखकर जितनी प्रसन्नता होती है उससे भी अधिक प्रसन्नता जिनेन्द्र भगवान् के दर्शन करने से होनी चाहिए। जैन दर्शन में व्यक्ति नहीं व्यक्तित्व पूजा गया है, यही कारण है कि अनादि-अनिधन गुणों में स्थित पंच परमेष्ठियों को नमस्कार किया गया जब तक हमारा सम्बन्ध भगवान से है तभी तक हम भक्त कहलाने के अधिकारी हैं। * जिन और जन में इतना ही अन्तर है कि एक वैभव के ऊपर बैठा है और एक के ऊपर वैभव बैठा है। भक्ति-आराधना सातिशय पुण्य की कारण तो है ही, साथ ही साथ परम्परा से मुक्ति की कारण भी है। भगवान् के मन्दिर में प्रवेश करते ही दुनिया के सारे महल और मकान फीके लगने लगते हैं। हे भगवन्! अब हमें प्रसिद्धि की नहीं सिद्धि की जरूरत है। आर.के. मार्बल्स लि. किशनगढ़ (राजस्थान) के सौजन्य से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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