Book Title: Jain Tattvika Paramparao me Swarup Moksharup Swarup
Author(s): Rajiv Prachandiya
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

View full book text
Previous | Next

Page 6
________________ अर्चनार्धन Jain Education International चतुर्थ खण्ड / ३६ कारण मानते हैं" । कषाय और योगादि पुरुष के अभेदज्ञान को तथा वेदान्त आदि अविद्या को कर्मबन्ध का मूल किन्तु इस दिशा में जनदर्शन की मान्यता है कि मिथ्यात्व अविरति ( काय मन-वचन की क्रिया आदि) कर्मबन्ध के मुख्य हेतु हैं १३ जिनमें लिप्त रहकर जीव कर्मजाल में बुरी तरह जकड़ा रहता है। इनसे मुक्त्वयं जीव को अपने भावों को सदैव शुद्ध रखने के लिये कहा गया है। क्योंकि कोई भी कार्य करते समय यदि जीव की भावना शुद्ध तथा राग-द्वेष — क्रोधमान माया लोभ, कषायों से निर्लिप्त वीतरागी है तो उस समय - ६ शारीरिक कार्य करते हुए भी कर्मबन्ध नहीं होता। कार्य करते समय जिस प्रकार का भाव जीव के मन में उत्पन्न होता है, उसी भाव के अनुरूप जीव में कर्मबन्ध हुआ करता है । कर्मबन्ध की तीव्रता - मन्दता अर्थात् श्रात्मस्वरूप के प्रकटीकरण अर्थात् आत्म-विकास की दशा के आधार पर जीव की तीन स्थितियां जैनधर्म में दृष्टव्य हैं। एक स्थिति में प्रात्मज्ञान का उदय नहीं होता है, दूसरी में आत्मज्ञान का उदय तो होता है किन्तु राग-द्वेष आदि काषायिक भाव प्रपना प्रभाव थोड़ा बहुत डालते रहते हैं तथा तीसरी में राग-द्वेष का पूर्ण उच्छेदन अर्थात् श्रात्मस्वरूप का पूर्ण प्रकटीकरण होता है । पहली स्थिति वहिरात्मा अर्थात् मिथ्यादर्शी की, दूसरी अन्तरात्मा प्रर्थात् सम्यग्दर्शी की तथा तीसरी स्थिति परमात्मा अर्थात् सर्वदर्शी की कहलाती है । * 3 इस प्रकार संसारी जीव की निकृष्ट अवस्था से उत्कृष्ट अवस्था तक अर्थात् संसार से मोक्ष अवस्था तक जाने का एक क्रमिक विकास है आत्मा का यह क्रमिक विकास किसी न किसी रूप में प्रायः सभी भारतीयदर्शन, वैदिक दर्शन, बौद्धदर्शन तथा जैनदर्शन क्रमश: भूमिकाओं * ४ अवस्थाओं तथा गुणस्थानों के नाम से स्वीकारते हैं। जैनदर्शन के धनुसार ये गुणस्थान मिष्पादृष्टि आदि के भेद से चौदह होते हैं, ५७ जिनमें से होकर जीव को अपना आध्यात्मिक विकास करते हुए अन्तिम लक्ष्य साध्य तक पहुंचना होता है। इन गुणस्थानों में मोह-शक्ति शनैः शनैः क्षीण होती जाती है और अन्त में जीव मोह - प्रावरण से निरावृत होता हुआ निष्प्रकम्प स्थिति में पहुँच जाता है । गुणस्थानों में पहले तीन स्थान वहिरात्मा की अवस्था, चतुर्थ से बारह स्थान अन्तरात्मा की अवस्था तथा तेरहवां एवं चौदहवां गुणस्थान, परमात्मा की अवस्था हैं । प्रारम्भ के बारह गुणस्थान मोह से तथा अन्तिम दो गुणस्थान योग से सम्बन्धित हैं । इन गुणस्थानों में कर्मबन्ध की स्थिति का वर्णन करते हुए जैनागम में स्पष्ट निर्देश है कि प्रथम दश गुणस्थान तक चारों प्रकार के बन्ध - प्रकृति, स्थिति, अनुभाग, प्रदेश होते रहते हैं किन्तु ग्यारहवें गुणस्थान से लेकर तेरहवें गुणस्थान तक मात्र प्रकृति और प्रदेशबन्ध ही शेष रहते हैं। चौदहवें गुणस्थान में ये दोनों भी समाप्त हो जाते हैं। तदनन्तर चारों प्रकार के बन्ध से मुक्त होकर यह जीवात्मा सिद्ध / परमात्मा हो जाता है अर्थात् मोक्षपद प्राप्त कर लेता है । 5 - आत्मा के श्राध्यात्मिक विकास अर्थात् सम्पूर्ण कर्म विपाकों से सर्वथा मुक्ति के लिए अर्थात् मोक्षप्राप्त्यर्थ जैनदर्शन मुख्यतः चार साधन उपायों को दर्शाता है। ये हैं सम्यक् दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र अर्थात् रत्नत्रय तथा तप । यह निश्चित है कि ग्रात्मा स्वभावतः कर्म और नोकर्म से जो पौद्गलिक हैं, सर्वथा भिन्न हैं। यह अनुभूति भेद विज्ञान कहलाती है, जो जीव को तप:साधना की घोर प्रेरित करती है । आगम में तप की परिभाषा को स्थिर करते हुए कहा जो तपा जाय वह तप है। जनदर्शन में तप के मुख्यतया For Private & Personal Use Only गया है कि कर्मक्षय के लिए दो भेद किये गये हैं--एक www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16