Book Title: Jain Tattvika Paramparao me Swarup Moksharup Swarup
Author(s): Rajiv Prachandiya
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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Page 7
________________ जैन तात्त्विक परम्परा में मोक्ष : रूप स्वरूप / ३७ बाह्यतप जिसके अन्तर्गत अनशन उपवास अवमौदर्य / ऊनोवर रसपरित्याग भिक्षाचरी / / वृत्तिपरिसंख्यान परिसंलीनता / विविक्त शय्यासन और कायक्लेश तथा दूसरा आभ्यन्तर तप जिसमें विनय वैयावृत्य/सेवा-शुश्रूषा प्रायश्चित स्वाध्याय, ध्यान और कायोत्सर्ग / व्युत्सर्ग नामक तप प्राते हैं । ६० ग्राभ्यन्तर तप को अपेक्षा बाह्यतप व्यवहार में प्रत्यक्ष परिलक्षित है किन्तु कर्मक्षय और प्रात्मशुद्धि के लिए तो दोनों प्रकार के तपों का विशेष महत्व है। वास्तव में तप के माध्यम से ही जीव अपने कर्मों की निर्जरा कर सकता है। कर्ममुक्ति अर्थात् मोक्षप्राप्त्यर्थ जैनदर्शन का लक्ष्य रहा है— वीतराग-विज्ञानता की प्राप्ति । यह वीतरागता सम्यक् दर्शन ज्ञान चारित्र रूपी रत्नत्रय की समन्वित साधना से उपलब्ध होती है। जैनदर्शन में रत्नत्रय के विषय में विस्तार से तर्कसंगत चर्चा हुई है। इसके अनुसार जीव- अजीव आदि नवविध तत्त्वों का यथार्थ बोध सम्यगृज्ञान, तत्त्वों के यथार्थस्वरूप पर किया गया श्रद्धान / दृढ प्रतीति अर्थात् स्वात्मप्रत्यक्षपूर्वक स्व-पर भेद का या कर्तव्यअकर्तव्य का विवेक सम्यक् दर्शन तथा प्राचरण द्वारा अन्तःकरण की शुद्धता अर्थात् कर्मबन्ध के वास्तविक कारणों को अवगत कर संबर (नवीन कर्मों को रोकना) तथा निर्जरा ( पूर्व संचित कर्मों का तप द्वारा क्षय करना) में लीन रहना, सम्यग् चारित्र कहलाता है।" जैनदर्शन में 1 सम्यग् दर्शन की महत्ता पर बल दिया गया है । ६२ उसे मोक्ष का प्रथम सोपान माना गया है । विना सम्यग् दर्शन के सूक्ष्म से सूक्ष्म ज्ञान अनुभूति तथा समस्त क्रियाएँ मिथ्या होती हैं। वास्तव तपादि सब निस्सार हैं। यह निश्चित 新 सम्यग् दर्शन के अभाव में ज्ञान चारित्र व्रत तथा है कि सम्यग्दर्शन से जीव सर्वप्रकार की मूढ़ताओं से ६४ 3 ऊपर उठता चला जाता है अर्थात् उसे भौतिक सुख की अपेक्षा शाश्वत प्राध्यात्मिक सुख का अनुभव होने लगता है। सम्यग्ज्ञान के विषय में जैनदर्शनों की मान्यता है कि जिस ज्ञान में संशय विपर्यास अनध्यवसाय तथा मिथ्यात्व का प्रभाव हो वह यथार्थ बोध सम्यग्ज्ञान कहलाता है। सम्यग् दृष्टि युक्त जीव का ज्ञान मिध्यात्व पर नहीं, सम्यकत्व पर आधारित होता है। जैनागम में ज्ञान की तरतम अवस्थाओंों कारणों एवं विषयादि के आधार पर ज्ञान के अनेक भेद-प्रभेद किए गये हैं।६ 3 मति श्रुत तथा अवधि ज्ञान मिथ्यात्व के संसर्ग से एक बार मिथ्याज्ञान की कोटि में आ सकते हैं। किन्तु मनःपर्याय और केवलज्ञान सम्यक्दर्शी जीवों में पाए जाने के कारण सम्यग्ज्ञान की ही सीमा में घाते हैं। इस सम्यग्ज्ञान से संसारी जीव जीवन मुक्त अर्थात् सिद्धत्व के सन्निकट पहुँचता है । सम्यक् चारित्र के विषय में जैनदर्शन का दृष्टिकोण है कि बिना इसके मोक्ष तक पहुँचना नितान्त असम्भव है। इसकी सम्यक् माराधना से दर्शन, ज्ञान व तप की प्राराधना भी हो जाती है। क्योंकि जो चारित्र रहित है उसका ज्ञान गुण निरर्थक है । इस प्रकार तोनों का समन्वित रूप ही मोक्ष का मार्ग स्पष्ट करता है । ६७ वस्तुतः श्रद्धा ज्ञान और चारित्र से कर्मों का निरोध होता है। जब जीव सम्यक् दर्शन - ज्ञान - चारित्र से युक्त होता है तब भाव से रहित होता है जिसके कारण नवीन कर्म कटते और छंटते हैं पूर्ववद्ध कर्म क्षय होने लगते हैं, कालान्तर में मोहनीय कर्म सम्पूर्ण रूप से नष्ट हो जाते हैं, तदनन्तर अन्तराय, ज्ञानावरणीय, और दर्शनावरणीय ये तीन कर्म भी एक साथ सम्पूर्ण रूप से नष्ट हो जाते हैं। इसके उपरान्त शेष बचे चार प्रभाति कर्म भी विनष्ट हो जाते हैं। इस प्रकार समस्त कर्मों का क्षय कर संसारी जीव मोक्ष को प्राप्त होता है। 1 Jain Education International For Private & Personal Use Only धम्मो दीयो संसार समुद्र में धर्म ही दीप है www.jainelibrary.org

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