Book Title: Jain Tattvika Paramparao me Swarup Moksharup Swarup Author(s): Rajiv Prachandiya Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf View full book textPage 8
________________ चतुर्थ खण्ड | ३८ अन्त में यही कहा जा सकता है कि जैनदर्शन में उल्लिखित तत्त्व-मीमांसा मोक्षमार्गपरक है। यह संसारी जीव को अपने वास्तविक स्वरूप में लाने के लिए सच्चे पुरुषार्थ की ओर प्रेरित करती है। जीव से लेकर मोक्ष तक तत्त्व की इस परम्परा में प्रास्रव-पुण्य-पाप तथा बन्ध तत्त्व सांसारिक वृत्तियों अर्थात् राग द्वेषादि-काषायिक भावों के परिणामों को दर्शाते हैं, संवर और निर्जरा कर्म-युक्ति की साधना का विवेचन करते हैं तथा मोक्ष तत्त्व संसारी जीव के आध्यात्मिक विकास में अर्थात आत्मा के वास्तविक स्वरूप-स्वभाव के प्रकटीकरण में एक प्रभावी भूमिका का निर्वाह करता है। वास्तव में मोक्षतत्त्व साधना-फल-परिणाम को दर्शा कर संसारी जीव में संसार से वैराग्य उत्पन्न कर मुक्ति की ओर प्रेरित करता है। D सन्दर्भ-ग्रन्थसूची १. (क) तद्भावस्तत्त्वम् ।-सर्वार्थसिद्धि, २।२।१५०।११, (ख) स्वं तत्त्वं स्वतत्त्वम् ।-राजवार्तिक, २।१।६।१००।२५, (क) तत्त्वं सल्लाक्षणिकं सन्मात्रं वा यतः स्वत: सिद्धम् । तस्मादनादि-निधनं स्वसहायं निर्विकल्पं च ।—पंचाध्यायी, पूर्वार्द्ध,८ (ख) सद् दव्वं वा, ।-भगवती, ८९ (ग) उप्पन्नेइ वा विगमेइ वा धुवेइ वा।-स्थानाङ्गसूत्र, १०, ३. तच्चं तह परमझें दव्वसहावं तहेव परमपरं । धेयं सुद्धं परमं एयट्ठा हुंति अभिहाणा ।। -बृहद् नयचक्र, गाथा, ४, ४. द्रव्यसंग्रह, चूलिका, २८८५२ ५. (क) प्रज्ञापना वृत्ति, प्राचार्य मलयगिरि, (ख) जीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षास्तत्त्वम् । -तत्त्वार्थसूत्र ११२,४ (ग) नियमसार, तात्पर्यवृत्ति, ५।१२।१ (घ) श्लोकवार्तिक, २।१।४।४८।१५६।९ (क) अभिगयजीवाजीवा उवलद्धपुण्णपावा पासवसंवरणिज्जरकिरियाहिगारण बन्धमोक्खकुसला। -भगवतीसूत्र । (ख) प्रज्ञापना (ग) जीवाजीवा य वंधो य पूण्णं पावासवो तहा । संवरो निज्जरा मोक्खो संते ए तहिया नव । ---उत्तराध्ययनसूत्र, २८।१४ (घ) स्थानाङ्गसूत्र, स्था०९, सूत्र ६६५, (ड) जीवाजीवा भावा पुण्णं पावं च आसवं तेसिं । संवर णिज्जर बन्धो मोक्खो य हंवति ते अठ्ठ ।। -पंचास्तिकाय, २।१०८ ७. चिन्तन की मनोभूमि, लेखक-उपाध्याय अमरमुनि, पृष्ठ ७१, ८. (क) जीवः प्राणी च जन्तुश्च क्षेत्रज्ञः पुरुषस्तथा। प्रमातात्मान्तरात्मा च ज्ञो ज्ञानीत्यस्य पर्ययः ।-महापुराण, २४।१०३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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