Book Title: Jain Tattvika Paramparao me Swarup Moksharup Swarup
Author(s): Rajiv Prachandiya
Publisher: Z_Umravkunvarji_Diksha_Swarna_Jayanti_Smruti_Granth_012035.pdf

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Page 4
________________ चतुर्थ खण्ड / ३४ प्रकार इन समस्त दर्शनों में मोक्ष को सुख की उपलब्धि तथा समस्त सांसारिक दुःखों की निवत्ति के रूप में स्वीकार किया है किन्तु मोक्ष-साधना में ये सभी दर्शन एक मत नहीं हैं। नैयायिक तथा वैशेषिकदर्शन प्रमाण और प्रमेयादि तत्त्वों का परिज्ञान प्राप्त करना ही मोक्ष का साधन मानते हैं जबकि सांख्य और योगदर्शनानुसार प्रकृति-पुरुष का विवेक, भेदविज्ञान से मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है । वेदान्त दर्शन अविद्या और उसके कार्य से निवृत्ति को मोक्ष का साधन स्वीकारते हैं तथा बौद्धदर्शन के अनुसार संसार को दुःखमय, क्षणिक एवं शून्यमय समझना मोक्ष का साधन है। 3८ यह दर्शन तप की कठोरता तथा विषयभोगों के अतिरेक की अपेक्षा मध्यममार्ग अपनाने पर अधिक बल देता है । इस प्रकार उपर्युक्त सभी दर्शन किसी न किसी रूप में कर्म, ज्ञान, योग और भक्ति को मोक्ष के उपाय साधन मानते हैं जिसके माध्यम से संसारी जीव मोक्ष पद पर प्रतिष्ठित हो सकता है। 30 किन्तु इन समस्त दर्शनों में जैनदर्शन की मोक्ष सम्बन्धी धारणा अत्यन्त व्यापक, सार्थक तथा परम वैज्ञानिक है । इसके अनुसार सम्पूर्ण कर्मों का क्षय होना अर्थात् समस्त बन्धनों से मुक्ति अर्थात् प्रात्मा और बन्ध का पृथक्करण ही मोक्ष है।४० जिसकी प्राप्ति पर यह संसारी जीव बार-बार जन्म-मरण से मुक्त अर्थात् सांसारिक सुख-दुःख से पूर्णतया निवृत्त हो, अपने वास्तविक विशुद्ध-स्वरूप में रमण करता हुमा अनन्त मानन्द का अनुभव करता है। फिर वह न तो वेदान्त दर्शन की भाँति ब्रह्मस्वरूप में लीन और न ही सांख्यदर्शन की भाँति प्रकृति को तटस्थ भाव से देखता रहता है और नहीं वह इस जगत् का निर्माण-ध्वंसकर्ता, भाग्यविधाता बनता है अपितु जगत् संसार से पूर्णतः निलिप्तता, वीतरागता से परिपूर्ण अपने ही परमानन्दमय स्वरूप में स्थित हो जाता है। __ जनदर्शन के अनुसार संसारी जीव चार गतियों-नरक, तिर्यंच, मनुष्य , देव---में से मात्र मनुष्यगति से ही मोक्ष प्राप्त कर सकता है। आयु के अन्त में वह स्वाभाविक ऊर्ध्वगति के कारण लोक शिखर पर, जिसे सिद्ध-शिला कहा जाता है, अवस्थित हो जाता है, जहाँ वह अनन्त काल तक अनन्त अतीन्द्रिय सुख का उपभोग करता हुअा अपने चरम शरीर के आकार रूप से स्थित रहता है । ज्ञान ही उसका शरीर होता है।४२ अन्य दर्शनों की भाँति जैनदर्शन उसके प्रदेशों की सर्वव्यापकता को स्वीकार नहीं करता और न ही उसे निर्गण व शून्य मानता है। उसके स्वभावजन्य अनन्त ज्ञानादि पाठ प्रसिद्ध गुणों के समुच्चय को स्वीकारता है। इस दर्शन के अनुसार जितने जीव मोक्ष को प्राप्त होते हैं उतने ही निगोद राशि से निकल कर व्यवहारराशि में प्राजाते हैं जिससे लोक जीवों से रिक्त नहीं होता, अपितु सदा भरा रहता है।४३ जनदर्शन की धारणा मोक्ष-भेद के सम्बन्ध में स्पष्ट है । वह सामान्यतः मोक्ष को एक ही प्रकार का मानता है किन्तु द्रव्य, भाव और भोक्तव्य की दृष्टि से यह अनेक प्रकार का होता है, यथा--जीवमोक्ष, पुद्गलमोक्ष, जीव-पुद्गल मोक्ष ।४४ द्रव्य और भाव के भेद से इसके दो भेद किए जा सकते हैं, एक भावमोक्ष तथा दूसरा द्रव्य मोक्ष । ५५ क्षायिक ज्ञान दर्शन व यथाख्यातचारित्र नाम वाले (शुद्ध रत्नत्रयात्मक) जिन परिणामों से निरवशेष कर्म प्रात्मा से दूर किये जाते हैं, उन परिणामों को भाव मोक्ष अर्थात् कर्मों के निर्मूल करने में समर्थ ऐसा शुद्धात्मा की उपलब्धिरूप (निश्चय रत्नत्रयात्मक) जीवपरिणाम भावमोक्ष है और सम्पूर्ण कर्मों का आत्मा से अलग हो जाना अर्थात् भावमोक्ष के निमित्त से जीव व कर्मों के प्रदेशों का निरवशेष रूप से पृथक् हो जाना द्रव्यमोक्ष कहलाता है।४६ वास्तव में भावमोक्ष ही मोक्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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