Book Title: Jain Tattva Samiksha ka Samadhan Author(s): Fulchandra Jain Shastri Publisher: Todarmal Granthamala Jaipur View full book textPage 4
________________ प्रकाशकीय माज हमें यह 'जैन तत्त्व समीक्षा का समाधान' ऐतिहासिक अनुपम. भेंट पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करते हुए अतीव प्रसन्नता का अनुभव हो रहा है। श्रीमान् सिद्धान्ताचार्य पं० फूलचन्द जी सिद्धान्तशास्त्री आज जैन समाज के पुरानी पीढ़ी के उच्चतम मूर्धन्य विद्वानों में सर्वाधिक वयोवृद्ध विद्वान हैं । वृद्धावस्था में अस्वस्थ रहते हुए भी उन्होंने यह कृति अत्यन्त श्रम पूर्वक तैयार की है, यह स्वयं ही उनकी बौद्धिक क्षमता का प्रत्यक्ष प्रमाण है। आज से लगभग २० वर्ष पूर्व सन् १९६३ में जयपुर में ही खानिया में पूज्य श्री प्राचार्य शिवसागरजी महाराज के समक्ष ऐतिहासिक महत्वपूर्ण प्रागमिक विषयों पर एक लिखित चर्चा हुई थी, जो "जयपुर (खानिया) चर्चा" के नाम से इसी ट्रस्ट द्वारा सन् १९६७ में प्रकाशित भी हो चुकी है। उक्त प्रकाशन के प्रकाशकीय के निम्न अंश द्वारा उक्त चर्चा की तत्कालीन परिस्थिति का ज्ञान होगा, अतः उद्धृत करता हूँ "जब इस काल में अध्यात्म को लेकर विद्वानों में मतभेद बढ़ने लगा और इसकी जानकारी पूज्य श्री प्राचार्य शिवसागरजी महाराज और उनके संघ को हुई, (उनके निकटवर्ती साधर्मी भाइयों से ज्ञात हुआ है) तब पूज्य श्री प्राचार्य महाराज ने अपने संघ में यह भावना व्यक्त की कि यदि दोनों ओर के सभी प्रमुख विद्वान एक स्थान पर बैठकर तत्त्वचर्चा द्वारा प्रापसी मतभेद को दूर करलें तो सर्वोत्तम हो । उनके संघ में श्री व० से हीरालाल जी पाटनी, निवाई और श्री व० लाड़मल जी, जयपुर शान्त परिणामी और सेवाभावी महानुभाव हैं। इन्होंने पूज्य श्री महाराज की सद्भावना को जानकर दोनों ओर के विद्वानों का एक सम्मेलन बुलाने का संकल्प किया। साथ ही इस सम्मेलन के करने में जो अर्थ व्यय होगा, उसका उत्तरदायित्व श्री ७० से० हीरालाल जी, निवाई ने लिया । यह सम्मेलन २०-६-६३ से उक्त दोनों ब्रह्मचारियों के आमंत्रण पर बुलाया गया था, जिसकी सानन्द समाप्ति १-१०-६३ के दिन हुई थी। प्रसन्नता है कि इसे सभी विद्वानों ने साभार स्वीकार कर लिया और यथासम्भव अधिकतर प्रमुख विद्वान प्रसन्नता पूर्वक सम्मेलन में उपस्थित भी हुए । यद्यपि यह सम्मेलन २० ता. से प्रारम्भ होना था, परन्तु प्रथम दिन होने के कारण उसका प्रारम्भ २१ ता. से हो सका, जो १-१०-१९६३ तक निर्बाध गति से चलता रहा । सम्मेलन की पूरी कार्यवाही लिखित रूप में होती थी, इससे किसी को किसी प्रकार की शिकायत करने का अवसर ही नहीं आया। इस सम्मेलन की समस्त कार्यवाही पूज्य श्री १०८ शिवसागर जी महाराज और उनके संघ के सानिध्य में होने के कारण बड़ी. शान्ति बनी रही। इसका विशेष स्पष्टीकरण सम्पादकीय वक्तव्य में पढ़ने को मिलेगा।Page Navigation
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 ... 253