Book Title: Jain Tattva Mimansa Author(s): Sagarmal Jain Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur View full book textPage 7
________________ जैन धर्म एवं दर्शन-149 जैन-तत्त्वमीमांसा-1 विभाग 2 जैन तत्त्वमीमांसा किसी भी दर्शन के तीन पक्ष होते हैं- जैसे कि 1. ज्ञान-मीमांसा 2. तत्त्व-मीमांसा और 3. आचार-मीमांसा / इन तीनों में भी तत्त्व-मीमांसा प्रमुख होती है। ज्ञानमीमांसा एवं आचारमीमांसा भी उसकी तत्त्वमीमांसा पर आधारित होती है। जैन-दर्शन भी इसका अपवाद नहीं है। यह बात अलग है कि उसने अपनी तत्त्व-मीमांसा को आचारमीमांसा के योग्य बनाने का प्रयास किया है। जैन आचार्यों ने सत् के स्वरूप की व्याख्या करते हुए, उसे परिवर्तनशील और अपरिवर्तनशील अथवा नित्य और अनित्य- दोनों ही माना है, ताकि आचार या साधना की उपयोगिता सिद्ध हो सके। इस पुस्तक में हमने जैन-तत्त्वमीमांसा की चर्चा की है। इसके मुख्य बिन्दु निम्न हैं- 1. सत् का स्वरूप 2. पंचअस्तिकाय की अवधारणा 3. षटद्रव्यों की अवधारणा की चर्चा की है। इसके पश्चात् द्रव्य, गुण और पर्याय का स्वरूप और उनके सह-सम्बन्ध की चर्चा भी इसमें की गई है, फिर षद्रव्यों का स्वरूप बताया गया है। अन्त में, नव तत्त्वों की अवधारणा का विवेचन किया है, फिर आस्रव, बंध, पुण्य, पाप, संवर, निर्जरा एवं मोक्षतत्त्व की चर्चा है। इसमें हमने यह भी बताया है कि जैनदर्शन के आत्मवाद का अन्य दर्शनों के आत्मवाद से क्या वैशिष्ट्य है। किन्तु, साधना की दृष्टि से जीव और पुद्गल का सम्बन्ध कैसे बनता है और उसे कैसे अलग किया जा सकता है, यह समझना अति आवश्यक होता है, अतः इस तत्त्वमीमांसा खण्ड के अन्त में नव या सात तत्त्वों की चर्चा ही की गई है। ज्ञातव्य है कि पुण्य-तत्त्व और पाप-तत्त्व को आश्रव तत्त्व के अन्तर्गत मानकर कुछ आचार्यों ने सात तत्त्वों की भी चर्चा की है, किन्तु हमने पुण्य और पापतत्त्व की स्वतंत्र चर्चा की है। अतः, हमने आश्रव, पुण्य, पाप, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष-तत्त्वों की भी चर्चा की है। इनमें पुण्य, पाप और बंध-तत्त्व की चर्चा जैन- कर्मसिद्धान्त के अन्तर्गत की गई है। मोक्षमार्ग की चर्चा आगे आचारमीमांसा खण्ड में की जावेगी। .Page Navigation
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