Book Title: Jain Tarka Bhasha
Author(s): Yashovijay Upadhyay, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad

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Page 24
________________ जैसीकि साधारण अभ्यासी अपेक्षा रखे। संग्रह द्वारा या तात्पर्य वर्णन द्वारा तर्कभाषाको सरल बनाने का कितना ही प्रयत्न क्यों न किया गया हो, पर ऐसा कभी सम्भव नहीं है कि प्राचीन नवीन न्यायशास्त्रके और इतर दर्शनोंके अमुक निश्चित अभ्यासके सिवाय वह किसी तरह समझने में आ सके। मूल ग्रन्थ कठिन हो तो उसकी सरल व्याख्या भी अन्ततो गत्वा कठिन ही रहती है । अतएव इस तात्पर्यसंग्रहा वृत्तिको कोई कठिन समझे तब उसके वास्ते यह ज़रूरी है कि वह जैनतर्कभाषा मूल और इस नव्यवृत्तिको समझनेकी प्राथमिक तैयारी करनेके बाद ही इसे पढ़नेका विचार करे । इस वृत्तिका उक्त दो दृष्टियोंके कारण तात्पर्यसंग्रहा ऐसा नाम रखा है पर इसमें एक विशेषता अवश्य ज्ञातव्य है । वह यह की जहाँ मूलग्रन्थों से अवतरणोंके संग्रह ही मुख्यतया हैं वहां भी व्याख्येय भागका तात्पर्य ऐसे संग्रहों के द्वारा स्पष्ट करनेकी दृष्टि रखी गई है और जहां अपनी ओरसे व्याख्या करके व्याख्येय भागका तात्पर्य बतलानेकी प्रधान दृष्टि रखी है वहां भी उस तात्पर्यके आधारभूत जैन जैनेतर अन्थोंका सूचन द्वारा संग्रह करनेका भी ध्यान रखा है। प्रतिओंका परिचय-प्रस्तुत संस्करण तैयार करनेमें चार आदर्शोका उपयोग किया गया है जिनमें तीन लिखित प्रतियां और एक छपी नकल समाविष्ट हैं। छपी नकल तो वही है जो भावनगरस्थ जैनधर्म प्रसारक सभा द्वारा प्रकाशित न्यायाचार्य श्री यशोविजय कृत ग्रन्थमालाके अन्तर्गत (पृ० ११३ से पृ० १३२ ) है । हमने इसका संकेत मुद्रितार्थ सूचक मु० रखा है । मुद्रित प्रति अधिकांश सं० प्रतिसे मिलती है। शेष तीन हस्तलिखित प्रतिओंके प्र० सं० २० ऐसे संकेत हैं। प्र० संज्ञक प्रति प्रवर्तक श्रीमत् कान्तिविजयजीके पुस्तकसंग्रह की है । सं० और व० संज्ञक दो प्रतियां पाटनगत संघके पुस्तक संग्रह की हैं। संघका यह संग्रह वखतजीकी शेरीमें मौजूद है । अतएव एक ही संग्रह की दो प्रतिओंमेंसे एकका संकेत सं० और दूसरीका संकेत ३० रखा है। उक्त तीन प्रतिओंका परिचय संक्षेपमें क्रमशः इस प्रकार है । प्र०-यह प्रति १७ पत्र परिमाण है । इसकी लम्बाई-चौड़ाई ९x४। इञ्च है। प्रत्येक पृष्ठमें १५ पंक्तियां हैं। प्रत्येक पंक्तिमें अक्षर संख्या ४९ से ५२ तक है । लिपि सुन्दर है। प्रति किसीके द्वारा संशोधित है और शुद्धप्रायः है। पन्ने चिपक जानेसे अक्षर घिसे हुए हैं फिर भी दुष्पठ नहीं हैं। किनारियोंमें दीमकका असर है । अन्तमें पुष्पिका हैवह इस प्रकार छ० सम्बत् १७३६ वर्षे आषाढशुदि ८ शनौ दिने लिखित पं० मोहनदास पं० रविवर्द्धनपठनार्थ सं०-यह प्रति संघके भाण्डारगत डिब्बा नं० ४० में पोथी नं० ३६ में है जो पोथी 'जैनतर्कभाषादि प्रकरण' इस नामसे अङ्कित है। इस पोथीमें ४० से ५३ तकके पत्रोंमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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