Book Title: Jain Tarka Bhasha
Author(s): Yashovijay Upadhyay, Sukhlal Sanghavi, Mahendrakumar Shastri, Dalsukh Malvania
Publisher: Saraswati Pustak Bhandar Ahmedabad

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Page 23
________________ इस वृत्तिकी रचना दो दृष्टिओंसे हुई है-एक संग्रहदृष्टि और दूसरी तात्पर्यदृष्टि । उपाध्यायजीने जहाँ जहाँ विशेषावश्यकभाप्यके तथा प्रमाणनयतत्त्वालोकके पदार्थोंको लेकर उनपर उक्त दो ग्रन्थोंकी अतिविस्तृत व्याख्या मलधारिवृत्ति तथा स्याद्वादरत्नाकरका अति संक्षेप करके अपनी चर्चा की है वहाँ उपाध्यायजीकृत संक्षिप्त चर्चा के ऊपर अपनी ओरसे विशेष खुलासा या विशेष चर्चा करना इसकी अपेक्षा ऐसे स्थलोंमें उक्त मलधारिवृत्ति तथा स्याद्वादरत्नाकरमेंसे आवश्यक भागोंका संग्रह करना हमने लाभदायक तथा विशेष उपयुक्त समझा, जिससे उपाध्यायजीकी संक्षिप्त चर्चाओंके मूल स्थानों का ऐतिहासिक दृष्टि से पता भी चल जाय और वे संक्षिप्त चर्चाएँ उन मूल ग्रन्थोंके उपयुक्त अवतरणों द्वारा विशद भी हो जायँ, इसी आशयसे ऐसे स्थलों में अपनी ओरसे खास कुछ न लिख कर आधारभूत ग्रन्थों में से आवश्यक अवतरणोंका संग्रह ही इस वृत्तिमें किया गया है। यही हमारी संग्रह दृष्टि है। इस दृष्टि से अवतरणोंका संग्रह करते समय यह वस्तु खास ध्यानमें रखी है कि अनावश्यक विस्तार या पुनरुक्ति न हो। अतएव मलधारिवृत्ति और स्याद्वादरत्नाकरमें से अवतरणोंको लेते समय बीच-बीचमें से बहुत-सा भाग छोड़ भी दिया है । पर इस बातकी ओर ध्यान रखनेकी पूरी चेष्टा की है कि उस-उस स्थलमें तर्कभाषाका भूल पूर्ण रूपेण स्पष्ट किया जाय । साथ ही अवतरणोंके मूल स्थानोंका पूरा निर्देश भी किया है जिससे विशेष जिज्ञासु उन मूल ग्रन्थोंमें से भी उन चर्चाओंको देख सके। उपाध्यायजी केवल परोपजीवी लेखक नहीं थे । इससे उन्होंने अनेक स्थलों में पूर्ववर्ती जैन ग्रन्थोंमें प्रतिपादित विषयों पर अपने दार्शनिक एवं नव्यन्याय शास्त्रके अभ्यासका उपयोग करके थोड़ा बहुत नया भी लिखा है। कई जगह तो उनका लेख बहुत संक्षिप्त और दुरूह है। कई जगह संक्षेप न होनेपर भी नव्यन्यायकी परिभाषाके कारण वह अत्यन्त कठिन हो गया है । जैन परंपरामें न्यायशास्त्रका खास करके नव्यन्यायशास्त्रका विशेष अनुशीलन न होनेसे ऐसे गम्भीर स्थलोंके कारण जैनतर्कभाषा जैन परंपरामें उपेक्षित सी हो गई है । यह सोच कर ऐसे दुरूह तथा कठिन स्थलोंका तात्पर्य इस वृत्तिमें बतला देना यह भी हमें उचित जान पड़ा। यही हमारी इस वृत्तिकी रचनाके पीछे तात्पर्यदृष्टि है। इस दृष्टिके अनुसार हमने ऐसे स्थलोंमें उपाध्यायजीके वक्तव्यका तात्पर्य तो बतलाया ही है पर जहां तक हो सका उनके प्रयुक्त पदों तथा वाक्योंका शब्दार्थ बतलानेकी ओर भी ध्यान रखा है । जिससे मूलग्रन्थ शब्दतः लग जाय और तात्पर्य भी ज्ञात हो जाय । तात्पर्य बतलाते समय कहीं उत्थानिकामें तो कहीं व्याख्यामें ऐतिहासिक दृष्टि रखकर उन ग्रन्थोंका सावतरण निर्देश भी कर दिया है जिनका भाव मनमें रखकर उपाध्यायजीके द्वारा लिखे जानेकी हमारी समझ है और जिन ग्रन्थों को देखकर विशेषार्थी उस-उस स्थानकी बातको और स्पष्टताके साथ समझ सके । इस तर्कभाषाका प्रतिपाद्य विषय ही सूक्ष्म है । तिस पर उपाध्यायजीकी सूक्ष्म विवेचना और उनकी यत्रतत्र नव्यन्याय परिभाषा इन सब कारणोंसे मूल तकभाषा ऐसी सुगम नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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