Book Title: Jain Tantra Sadhna me Sarasvati
Author(s): Maruti Nandan Prasad Tiwari, Kamalgiri
Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_3_Pundit_Dalsukh_Malvaniya_012017.pdf

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Page 11
________________ १६८ डॉ० मारुतिनन्दन तिवारी एवं डॉ. कमलगिरि बायें हाथ में पुस्तक है, जबकि दाहिना हाथ खण्डित है (किन्तु अवशिष्ट भाग में अभयाक्ष स्पष्ट है)। हंसवाहन यहाँ नहीं दिखाया गया है। दिगम्बर स्थल देवगढ़ ( ललितपुर, उत्तर प्रदेश ) से लगभग नवीं से १२वीं शती ई० के मध्य की सरस्वती की कई स्वतंत्र प्रतिमायें मिली हैं। इनमें द्विभुजी और चतुर्भजी देवी कभी हंस और कभी मयूर पर आरूढ़ है। २४ यक्षियों के सामूहिक निरूपण (मन्दिर १२, ८६२ ई०) में भी सरस्वती की दो मूर्तियाँ आकारित हैं। अभिनन्दन तथा सुपार्श्वनाथ जिनों की यक्षियों को यहाँ लेखों में "भगवती सरस्वती" और "मयूरवाहि(नी)" कहा गया है।' देवगढ़ के मन्दिर (११वीं शती ई०) की त्रितीर्थी जिन प्रतिमा में सरस्वती का अंकन विशेष महत्त्व का है। इस त्रितीर्थी जिन प्रतिमा में दो जिनों के साथ बायों ओर सरस्वती की भी आकृति बनो है, जो आकार में जिन मूर्तियों के बराबर है। इस प्रकार श्रुतदेवता को यहाँ जिनों के समान प्रतिष्ठा प्रदान की गई है। त्रिभंग में खड़ी चतुर्भजी सरस्वती के करों में वरदमुद्रा, अक्षमाला, पद्म और पुस्तक है तथा समीप ही मयुर वाहन की आकृति भी बनी है। देवगढ़ में द्विभुजी सरस्वती के हाथों में सामान्यतः अभयमुद्रा और पुस्तक दिखाया गया है (मन्दिर संख्या १६) । धम्मिल्ल या जटाजूट से शोभित देवगढ़ की चतुर्भजी प्रतिमाओं में देवी के करों में वरदमुद्रा, व्याख्यान-अक्षमाला, सनालपद्म तथा पुस्तक प्रदर्शित हैं। एक उदाहरण में (मन्दिर संख्या १९) पुस्तक, व्याख्यान-मद्रा और मयूरपीच्छिका लिए सरस्वती के साथ चामरधारी सेवकों, जिनों एवं जैन आचार्यों की भी आकृतियां उकेरी हैं। यह प्रतिमा स्पष्टतः देवी के जिनवाणी या आगमिक ग्रन्थों की अधिष्ठात्री देवी होने का भाव दरशाती है। दिगम्बर स्थल खजुराहो (छतरपुर, मध्य प्रदेश) में देवी की कुल आठ मूर्तियाँ हैं। एक उदाहरण को छोड़कर अन्य सभी में देवी चतुर्भुजी हैं। लगभग ९५० ई० से ११०० ई० के मध्य की इन मूर्तियों में देवो ललितमुद्रा में पुस्तक, वीणा (एक या दोनों हाथों में), पद्म (सामान्यतः दोनों हाथों में) और वरदमुद्रा (या जलपात्र या अक्षमाला) के साथ निरूपित हैं। उनके साथ हंस वाहन केवल पार्श्वनाथ मन्दिर (लगभग ९५०-७० ई०) के उत्तरी अधिष्ठान की मूर्ति में ही उत्कीर्ण है। इसी मन्दिर के दक्षिणी अधिष्ठान की मूर्ति में सरस्वती षड्भुजी हैं और उनके ऊपर के दो हाथों में पद्म और पुस्तक हैं, तथा मध्य के दोनों हाथ वीणा वादन कर रहे हैं; शेष दो हाथों में वरदमुद्रा तथा जलपात्र हैं। देवी के साथ चामरधारिणी सेविकायें, मालाधर एवं लघु जिन आकृतियाँ भी आकारित हैं। कर्नाटक के विभिन्न स्थलों से भी दिगम्बर परम्परा की कुछ सरस्वती प्रतिमायें मिली हैं। इनमें देवी के शक्ति पक्ष को उजागर किया गया है। ११वीं-१२वीं शती ई० की ऐसी तीन मूर्तियाँ क्लाज़ बून, वि जिन इमेजेज ऑव देवगढ़, लिडेन; १९६५, पृ० १०२, १०५ : सुपार्श्वनाथ की चतुर्भुजा मयूरवाहना यक्षी त्रिभंग में खुदी है और उसके करों में व्याख्यानमुद्रा, चामर-पद्म, पुस्तक और शंख है। तीन उदाहरणों में से दो मन्दिर सं० १२ और १९ में हैं जबकि तीसरा चहारदीवारी के प्रवेश द्वार पर है। ३. पार्श्वनाथ मन्दिर के दक्षिण अधिष्ठान की मूर्ति । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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