Book Title: Jain Tantra Sadhna me Sarasvati
Author(s): Maruti Nandan Prasad Tiwari, Kamalgiri
Publisher: Z_Aspect_of_Jainology_Part_3_Pundit_Dalsukh_Malvaniya_012017.pdf

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Page 1
________________ तंत्र केवल धर्म या विश्वास ही नहीं वरन् एक विशेष प्रकार की जीवन पद्धति भी है । भारतीयों में प्राचीन काल से ही किसी न किसी रूप में तंत्र भाव विद्यमान रहा है ।" ब्राह्मण और बौद्ध धर्मों के समान जैन धर्म में भी प्राचीन काल से ही तंत्र का विशेष महत्त्व था। पर जैन धर्म में तंत्र मुख्यतः मंत्रवाद के रूप में था । जैन धर्म में तांत्रिक साधना के घिनौने आचरण पक्ष को कभी भी मान्यता नहीं मिली । मंत्रवाद की जैन परम्परा गुप्तकाल में प्रारम्भ हुई और मध्यकाल तक उसमें निरन्तर विकास होता गया । १. २. जैन धर्म में मंत्रवाद के साथ ही शारीरिक, मानसिक और आत्मा की शान्ति तथा पवित्रता के लिए विद्या-शक्ति को भी महत्त्व दिया गया । विद्वान् मंत्र और विद्या में भेद बताते हैं, किन्तु दिव्य शक्तियों से सम्बन्धित दोनों ही पद्धतियाँ मूलतः एक हैं। मंत्रवाद में ओम्, ह्रीम् क्लीम्, स्वाहा जैसे अक्षरों एवं प्रतीकों द्वारा विभिन्न देवों का आह्वान किया जाता है जबकि विद्या, देवियों की साधना से सम्बन्धित है । समवायांगसूत्र में मंत्र और विद्याओं की साधना को पाप श्रुत में रखा गया है जिसका व्यवहार जैन भिक्षुओं के लिए निषिद्ध था । पर दूसरी ओर नायाधम्मकहाओ में महावीर के शिष्य सुधर्मा को विज्जा (विद्या) और मंत्र दोनों ही का ज्ञाता भी कहा गया है । " ३. ४. ५. जैनतंत्र साधना में सरस्वती ६. ७. Jain Education International डॉ० मारुतिनन्दन तिवारी, डॉ० कमल गिरि, फ़िलिप, रॉसन, दि आर्ट ऑव तंत्र, दिल्ली, १९७३, पृ० ९-१२ द्रष्टव्य शाह, यू० पी०, 'ए पीप इनटू दि अर्ली हिस्ट्री आफ तंत्र इन जैन लिट्रेचर', भरत कौमुदी खण्ड - २, १९४७, पृ० ८३९-५४; शर्मा, बी० एन०, सोशल लाइफ इन नार्दनं इण्डिया, दिल्ली, १९६६, पृ० २१२-१३ झवेरी, मोहनलाल भगवानदास, कम्परेटिव ऐण्ड क्रिटिकल स्टडी ऑव मंत्रशास्त्र, अहमदाबाद, १९४४, पृ० २९३-९४; विमलसूरि ( ० ४७३ ई०), मानतुंगसूरि ( ब० प्रारम्भिक ७वीं शती ई०) हरिभद्रसूरि (ल० ७४५-८५ ई०), उद्योतनसूरि (७७८ ३०) एवं बप्पभट्टिसूरि जैसे प्रारम्भिक जैन आचार्यों की रचनाओं में मंत्र और विद्याओं के पर्याप्त प्रारम्भिक संदर्भ हैं । नेमिचन्द्र, वर्धमानसूरि एवं अन्य अनेक परवर्ती जैन आचार्यों की रचनाओं के मांत्रिक श्लोकों में मंत्रों एवं विद्याओं के प्रचुर एवं विस्तृत उल्लेख मिलते हैं । झवेरी, मोहनलाल भगवानदास, पूर्व निर्दिष्ट, पृ० २९४ जिनभद्रक्षमाश्रमणकृत विशेषावश्यकभाष्य (ल० ५८५ ई०) गाथा ३५८९ : सं० दलसुख मालवणिया एवं बेचरदास, जे० दोशी, लालभाई दलपतभाई सिरीज़ २१, अहमदाबाद, १९६८; शाह, यू०पी०, पूर्व निविष्ट, पृ० ८५०-५१ शाह, यू०पी०, पूर्व निविष्ट, पृ० ८४३-४४ नाधम्मक हाओ १.४ : सं० एन० बी० वैद्य, पूना, १९४०, ५०१ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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