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तंत्र केवल धर्म या विश्वास ही नहीं वरन् एक विशेष प्रकार की जीवन पद्धति भी है । भारतीयों में प्राचीन काल से ही किसी न किसी रूप में तंत्र भाव विद्यमान रहा है ।" ब्राह्मण और बौद्ध धर्मों के समान जैन धर्म में भी प्राचीन काल से ही तंत्र का विशेष महत्त्व था। पर जैन धर्म में तंत्र मुख्यतः मंत्रवाद के रूप में था । जैन धर्म में तांत्रिक साधना के घिनौने आचरण पक्ष को कभी भी मान्यता नहीं मिली । मंत्रवाद की जैन परम्परा गुप्तकाल में प्रारम्भ हुई और मध्यकाल तक उसमें निरन्तर विकास होता गया ।
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जैन धर्म में मंत्रवाद के साथ ही शारीरिक, मानसिक और आत्मा की शान्ति तथा पवित्रता के लिए विद्या-शक्ति को भी महत्त्व दिया गया । विद्वान् मंत्र और विद्या में भेद बताते हैं, किन्तु दिव्य शक्तियों से सम्बन्धित दोनों ही पद्धतियाँ मूलतः एक हैं। मंत्रवाद में ओम्, ह्रीम् क्लीम्, स्वाहा जैसे अक्षरों एवं प्रतीकों द्वारा विभिन्न देवों का आह्वान किया जाता है जबकि विद्या, देवियों की साधना से सम्बन्धित है । समवायांगसूत्र में मंत्र और विद्याओं की साधना को पाप श्रुत में रखा गया है जिसका व्यवहार जैन भिक्षुओं के लिए निषिद्ध था । पर दूसरी ओर नायाधम्मकहाओ में महावीर के शिष्य सुधर्मा को विज्जा (विद्या) और मंत्र दोनों ही का ज्ञाता भी कहा गया है । "
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जैनतंत्र साधना में सरस्वती
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डॉ० मारुतिनन्दन तिवारी, डॉ० कमल गिरि,
फ़िलिप, रॉसन, दि आर्ट ऑव तंत्र, दिल्ली, १९७३, पृ० ९-१२
द्रष्टव्य शाह, यू० पी०, 'ए पीप इनटू दि अर्ली हिस्ट्री आफ तंत्र इन जैन लिट्रेचर', भरत कौमुदी खण्ड - २, १९४७, पृ० ८३९-५४; शर्मा, बी० एन०, सोशल लाइफ इन नार्दनं इण्डिया, दिल्ली, १९६६, पृ०
२१२-१३
झवेरी, मोहनलाल भगवानदास, कम्परेटिव ऐण्ड क्रिटिकल स्टडी ऑव मंत्रशास्त्र, अहमदाबाद, १९४४, पृ० २९३-९४; विमलसूरि ( ० ४७३ ई०), मानतुंगसूरि ( ब० प्रारम्भिक ७वीं शती ई०) हरिभद्रसूरि (ल० ७४५-८५ ई०), उद्योतनसूरि (७७८ ३०) एवं बप्पभट्टिसूरि जैसे प्रारम्भिक जैन आचार्यों की रचनाओं में मंत्र और विद्याओं के पर्याप्त प्रारम्भिक संदर्भ हैं । नेमिचन्द्र, वर्धमानसूरि एवं अन्य अनेक परवर्ती जैन आचार्यों की रचनाओं के मांत्रिक श्लोकों में मंत्रों एवं विद्याओं के प्रचुर एवं विस्तृत उल्लेख मिलते हैं ।
झवेरी, मोहनलाल भगवानदास, पूर्व निर्दिष्ट, पृ० २९४
जिनभद्रक्षमाश्रमणकृत विशेषावश्यकभाष्य (ल० ५८५ ई०) गाथा ३५८९ : सं० दलसुख मालवणिया एवं बेचरदास, जे० दोशी, लालभाई दलपतभाई सिरीज़ २१, अहमदाबाद, १९६८; शाह, यू०पी०, पूर्व निविष्ट, पृ० ८५०-५१
शाह, यू०पी०, पूर्व निविष्ट, पृ० ८४३-४४
नाधम्मक हाओ १.४ : सं० एन० बी० वैद्य, पूना, १९४०, ५०१
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मैनतंत्र साधना में सरस्वती
१५९ विद्याओं के सन्दर्भ प्रारम्भिक आगम ग्रन्थों में भी हैं। पांचवी शती ई० तक जैन धर्म में इनका एक निश्चित स्थान बन चुका था। विमलसूरिकृत पउमचरिय (लगभग ४७३ ई०) में गरुडा ( कालान्तर में चक्रेश्वरी ), सिंहवाहिनी ( अम्बिका ), बहुरूपा ( बहुरूपिणी ), निद्राणी, सिद्धार्था, सर्वकामा, महासुन्दरी जैसी कई विद्याओं के सन्दर्भ हैं। विभिन्न अवसरों पर राम, लक्ष्मण, रावण आदि ने इनकी साधना की थी। कोट्यार्यवादी गणि ने भी जैन तंत्र में प्रचलित कुछ विद्याओं के सन्दर्भ दिये हैं। जैन परम्परा में विद्याओं की कुल संख्या ४८ हजार बतायी गयी है। इनमें से १६ विद्याओं को लेकर आठवीं शती ई० में महाविद्याओं की सूची नियत हुई। इन्हीं महाविद्याओं में से कुछ को (रोहिणी, प्रज्ञप्ति, काली, अप्रतिचक्रा, महाकाली, गौरी, वैरोट्या, मानसी, वज्रशृङ्खला, ज्वालामालिनी तथा महामानसी) ८वीं-९वीं शती ई० में २४ यक्षियों की सूची में भी सम्मिलित किया गया । देवगढ़ के शान्तिनाथ मन्दिर (सं० १२, ८६२ ई०) पर निरूपित २४ यक्षियों के समूह में इन महाविद्याओं (अप्रतिचक्रा, वज्रशृङ्खला, नरदत्ता, महाकाली, वेरोट्या, अच्छुप्ता तथा महामानसी) को स्पष्टतः पहचाना जा सकता है। मध्यकाल की लोकप्रिय विद्याओं में कुष्माण्डी (या अम्बिका), पद्मावती, वेरोट्या और ज्वालामालिनी सर्वप्रमुख थीं।
जैन धर्म में श्रत विद्या के रूप में सरस्वती की आराधना अत्यन्त प्राचीन है। द्वादशांग जैन ग्रन्थों को श्रुतदेवता के अवयव और १४ पूर्व ग्रन्थों को उनका आभूषण बताया गया है। जैन धर्म में सरस्वती की साधना अज्ञानता तथा दुःखों को दूर करने के लिए की गयी है। ब्राह्मण धर्म में सरस्वती को प्रारम्भ से ही विद्या के साथ विभिन्न ललितकलाओं (संगीत) की देवी भी माना गया पर जैन धर्म में लगभग नवीं शती ई० तक सरस्वती केवल विद्या की ही देवी रहीं। यही कारण है कि १०वीं शती ई० के पूर्व उनके संगीत या अन्य ललितकलाओं से सम्बन्धित होने के संकेत साहित्य या मूर्त रूपों में हमें नहीं मिलते हैं।
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सूत्रकृतांग (२.२.१५-पी० एल० वैद्य-सं०, १, १९२८, पृ० ८७) एवं नायाधम्मकहाओ (१६, १२९-एन० वो० वैद्य-सं०, पृ० १८९) में उत्पतनी, वेताली, गौरी, गन्धारी, जम्भणि, स्तम्भनी, अन्तर्धानी एवं अन्य कई विद्याओं के नामोल्लेख मिलते हैं। पउमचरिय ७. ७३-१०७, ७.१४४-४५, ५९.८४, ६७.१-३ : एक स्थल पर पउमचरिय में राम के साथ युद्ध के प्रसङ्ग में रावण द्वारा ५५ विद्याओं की सामहिक साधना की भी उल्लेख है (७.१३५-४४) विशेषावश्यक भाष्य पर कोट्यार्यवादी र्गाण की टीका में भी अम्बकुष्माण्डी, महारोहिणी, महापुरुषदत्ता एवं महाप्रज्ञप्ति विद्याओं के नामोल्लेख है (गाथा ३५९०) संघदासगणि (ल. ७०० ई०) के वसुदेवहिण्डी एवं हेमचन्द्रसूरि (१२वीं शती ई० का मध्य) के त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित्र में विद्याओं की कुल संख्या ४८०.. बताई गई है। दिगम्बर ग्रन्थकार मल्लिषेण एवं इन्द्रनन्दि ने क्रमशः भैरव पद्मावतीकल्प (ल० १०४७ ई०)
और ज्वालिनीमाता (ल० ९३९ ई.) की रचना की थी। द्वादशांगश्रुतदेवाधिदेवते सरस्वत्यै स्वाहा, निर्वाणकलिका, पृ० १७ : द्रष्टव्य शाह, यू० पी०, आइकनोग्राफी ऑव जैन गाडेस सरस्वती, जर्नल ऑव यूनिवर्सिटी ऑव बॉम्बे, खण्ड-१०, (न्यू सिरीज), भाग-२, सितम्बर १९४१, पृ० १९६
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डॉ. मारुतिनन्दन तिवारी एवं डॉ. कमलगिरि ज्ञान और पवित्रता की देवी होने के कारण ही सरस्वती के साथ हंसवाहन और करों में पुस्तक, अक्षमाला, वरदमुद्रा तथा जलपात्र दिखाये गये। जैन धर्म में सरस्वती पूजन की प्राचीनता व्याख्याप्रज्ञप्ति (लगभग दूसरी-तीसरी शती ई०), शिवशर्माकृत पक्षिकसूत्र (लगभग ५वीं शती ई०), सिंहसूरि क्षमाश्रमणकृत द्वावशारण्यचक्रवत्ति (लगभग ६७५ ई०), हरिभद्र सूरिकृत पंचाशक (लगभग ७७५ ई०) और संसार-धावानल-स्तोत्र, महानिशीथसूत्र (लगभग ९वीं शती ई०) तथा बप्पट्टि सूरिकृत शारदास्तोत्र (लगभग ८वीं शती ई० का तीसरा चरण) के साहित्यिक सन्दर्भो एवं पुरातात्विक उदाहरणों में मथुरा से प्राप्त प्राचीनतम कुषाणकालोन (१३२ ई० या १४९ ६०) सरस्वती प्रतिमा से समझी जा सकती है। जैन मन्दिरों, विशेषतः पश्चिम भारत के मन्दिरों, पर सरस्वती के अनेकशः निरूपण से भी सरस्वती पूजन को लोकप्रियता सिद्ध होती है। श्वेताम्बर परम्परा में ज्ञानपंचमी और दिगम्बर परम्परा में श्रुतपंचमी का आयोजन भी सरस्वती की लोकप्रियता का ही साक्षी है। जैनों में प्रचलित श्रुतदेवता, तपस, श्रुतस्कन्ध और श्रुतज्ञान व्रत भी सरस्वती से ही सम्बन्धित हैं।'
दिगम्बर सम्प्रदाय की अपेक्षा श्वेताम्बर सम्प्रदाय में सरस्वती पूजन अधिक लोकप्रिय था। यही कारण है कि बादामी, ऐहोल एवं एलोरा जैसे दिगम्बर जैन स्थलों पर सरस्वती की मूर्तियाँ नहीं बनीं। पूर्व मध्यकाल में श्वेताम्बर सम्प्रदाय में सरस्वती को साधना शक्ति के रूप में भी की गई, जिसमें आगे चलकर तंत्र का भी प्रवेश हुआ।
प्रभाचन्द्राचार्यकृत प्रभावकचरित (लगभग १२५० ई०), मेरुतुंगाचार्य कृत प्रबन्धचिन्तामणि (लगभग १३०५-०६ ई०) राजशेखरसूरिकृत प्रबन्धकोश (लगभग १३४८-४९ ई०) तथा जिनमण्डनकृत कुमारपालचरित (लगभग १४३५-३६ ई०) जैसे मध्यकालीन जैन ग्रन्थों में जैन भिक्षुओं एवं बप्पभट्टिसूरि, हेमचन्द्र, मल्लिषेण, मल्लवादिसूरि (द्वितीय) तथा नरचन्द्रसूरि जैसे जैन आचार्यों द्वारा सरस्वती की तांत्रिक साधना के फलस्वरूप विभिन्न विद्यापरक शक्तियां प्राप्त करने के प्रचुर उल्लेख हैं। सरस्वती की मांत्रिक एवं तान्त्रिक साधनाओं से असाधारण कवि और वादी बनने के साथ ही अन्य कई प्रकार की विद्या शक्तियां भी प्राप्त होती थीं। हेमचन्द्र ने अलंकारचूडामणि में ऐसे सारस्वत मंत्रों को पूर्ण मान्यता भी दी है। प्रतिद्वन्द्वियों पर विजय करने के लिए हेमचन्द्र तथा अन्य कई जैन आचार्यों ने ब्राह्मी देवी की कृपा प्राप्त करने के उद्देश्य से ब्राह्मीदेश (कश्मीर) की यात्रा भी की थी।४
प्रबन्धकाव्यों में गोपगिरि के शासक आमराज के दरबार के बौद्ध भाषाकार वर्धनकुंजर को पराजित करने के लिए जैन आचार्य बप्पभट्टिसूरि द्वारा सरस्वती की साधना करने का विस्तृत
१. शाह, य० पी०, पूर्व निर्दिष्ट, पृ० १९६. २. चतुर्विशतिका (बप्पट्टिसूरि कृत)-परिशिष्ट शारदास्तोत्र ११; मैनस्तोत्रसंदोह (अमरशत
नतांगिः कामधेनु कवीनाम्।. खण्ड-१, सं० अमरविजयमुनि, अहमदाबाद, १९३२, पृ. ३४६ ३. अलंकारचूडामणि १.४ (जी० ब्यूहलर के दि लाईफ ऑव हेमचन्द्राचार्य से उद्धृत, सिंघी जैन
ग्रन्थमाला-११, शांतिनिकेतन, १९३६, पृ० १०) ४. जी० व्यूहलर, पूर्व निर्दिष्ट, पृ० १०.
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जैनतंत्र साधना में सरस्वती उल्लेख मिलता है।' प्रभावकचरित में उल्लेख है कि बप्पभट्टि और वर्धनकुंजर के मध्य निरन्तर छः माह तक वाद चलता रहा, पर कोई निर्णय नहीं हो सका। तब बप्पभट्टि ने विजय के लिए गुरु से प्राप्त मंत्र द्वारा मध्यरात्रि में गिरादेवी (सरस्वती) का आह्वान किया। मंत्र इतना प्रभावशाली था कि सरस्वती बप्पभट्टि के समक्ष इतनी त्वरा में उपस्थित हुई कि वस्त्र धारण करना भी भूल गईं (अनावृत्तशरीरम्)। इस अवसर पर बप्पभट्टि ने सरस्वती की प्रशंसा में १४ श्लोकों वाले एक स्तोत्र की भी रचना की थी। इस पर प्रसन्न होकर सरस्वती ने बप्पभट्टि को बताया कि वर्धनकुंजर पिछले सात जन्मों से उनका अनन्य भक्त है और सरस्वती ने ही उसे वाद में अपराजेय बनाने वाली अक्षयवचनगुटिका दी है। बप्पभट्टि की प्रार्थना पर सरस्वती ने ही उन्हें वर्धनकुंजर पर विजय का उपाय भी बताया। वाद के दौरान मुखशौच का प्रस्ताव करने पर देवी की कृपा से मुखशौच के समय वर्धनकुंजर के मुख से जब अक्षयवचनगुटिका गिर जाएगी तभी बप्पभट्टि उसे पराजित कर सकेंगे। बप्पभट्टि ने देवी के आदेशानुसार कार्य किया और वर्धनकुंजर को को पराजित कर वादिकुंजरकेशरी बने । यह कथा सरस्वती साधना से प्राप्त अलौकिक शक्ति को प्रकट करती है। सरस्वती ने बप्पभट्टि को यह भी निर्देश दिया कि १४ श्लोकों वाले स्तोत्र को वे किसी अन्य व्यक्ति को न बतायें क्योंकि वह स्तोत्र (मंत्र) इतना प्रभावशाली है कि उसके उच्चारणमात्र से ही उन्हें साधक के समक्ष विवशतः उपस्थित होना पड़ेगा। यही कथा प्रबन्धकोश में भी मिलती है, किन्तु यहाँ सरस्वती के निर्वस्त्र उपस्थित होने का सन्दर्भ नहीं है ।
हेमचन्द्रसूरि (१२वी शती ई०) भी अन्य चामत्कारिक शक्तियों के साथ ही सारस्वत शक्ति सम्पन्न थे। प्रभावकचरित में उल्लेख है कि चौलुक्यराज जयसिंह ने हेमचन्द्र से उज्जैन के
प्रभावकचरित (प्रभाचन्द्राचार्यकृत-सं० जिनविजयमुनि, सिंघी जैन ग्रन्थमाला-१३, अहमदाबाद, कलकत्ता, १९४०) ११-बप्पभट्टिसूरिचरित, प्रबन्धकोश (राजशेखरसूरिकृत, सं० जिनविजयमुनि, प्रथम भाग, सिंघी जैन ग्रन्थमाला-६, शांतिनिकेतन, १९३५) ९बप्पभट्टिसूरिप्रबन्ध. प्राग्दत्तं गुरुभिर्मन्वं परावतंयतः सतः । विवत्तंसे भवन्मन्त्रजापात् तुष्टाहमागता ॥ वरं वृण्विति तत्रोक्तो बप्पभट्टिरुवाच च । देवी प्राहामुना सप्तभवा नाराधिताऽस्म्यहम् ।। प्रदत्ता गुटिकाक्षय्यवचनाऽस्य मया ततः । तत्प्रभावाद् वचो नास्य हीयते यतिनायक!॥ सरस्वती पुनः प्राह नाहं जैनविरोधिनी । उपायं तेऽपयिष्यामि यथासौ जीयते बुधः ॥ चतुर्दशं पुनवृत्तं न प्रकाश्यं कदापि हि । यतस्तत्र श्रुते साक्षाद्भवितव्यं मया ध्रुवम् ॥
प्रभावकचरित ११ : बप्पभट्टिसूरिचरित ४१९-४४२. ३. प्रबन्धकोश-९ बप्पभट्टिसूरिप्रबन्ध. ४. जी०. ब्यूहलर, पूर्व निविष्ट, पृ० ५४. २१
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डॉ० मारुतिनन्दन तिवारी एवं डॉ० कमलगिरि
परमार शासक भोज के व्याकरण के समान ही एक व्याकरण ग्रन्थ की रचना का निवेदन किया था । हेमचन्द्र ने इसके लिए कश्मीर के सरस्वती पुस्तकालय से आठ व्याकरण ग्रन्थों को मंगाया था। इस निमित्त कश्मीर गये अधिकारियों की प्रशंसा से प्रसन्न होकर सरस्वती स्वयं उपस्थित हुईं और उन्होंने अपने भक्त हेमचन्द्र के पास पूर्व रचित व्याकरण ग्रन्थों को सन्दर्भ हेतु भेजने की आज्ञा दी । हेमचन्द्र का व्याकरण ग्रन्थ पूरा होने पर सरस्वती ने उसे अपने कश्मीर स्थित मन्दिर के पुस्तकालय के लिए स्वीकार भी किया था ।" प्रबन्धकोश में उल्लेख है कि एक बार हेमचन्द्र ने चौलुक्य कुमारपाल का पूर्वभव जानने के लिए सरस्वती नदी के किनारे सरस्वती देवी का आह्वान किया था तीन दिनों के ध्यान के पश्चात् सरस्वती ( विद्या देवी ) स्वयं उपस्थित हुईं और उन्होंने हेमचन्द्र को कुमारपाल के पूर्वभवों के बारे में बताया । २
भैरव - पद्मावती-कल्प एवं भारती कल्प के रचनाकार मल्लिषेणसूरि ( लगभग १०४७ ई० ) भी सारस्वत शक्ति ( सरस्वती लब्धवरप्रासादः ) सम्पन्न थे । २ वसन्तविलास के रचनाकार सिद्धसारस्वत बालचन्द्रसूरि ( लगभग प्रारम्भिक १३वीं शती ई० ) ने भी सफलतापूर्वक सरस्वती की मांत्रिक साधना की थी । प्रभावकचरित एवं प्रबन्धचिन्तामणि में शीलादित्य के दरबार के मल्लवादिसूरि का उल्लेख मिलता है जिन्हें सरस्वती ने नयचक्र दिया था | ग्रन्थों में बौद्धों को वाद में पराजित करने के लिए मल्लवादिसूरि के गले में सरस्वती के प्रवेश का भी सन्दर्भ मिलता है । मल्लवादि ने अपनी विलक्षण स्मरण शक्ति से सरस्वती को प्रसन्न किया था। कथा के अनुसार एक बार जब मल्लवादिसूरि सरस्वती की साधना में तल्लीन थे उसी समय आकाश में विचरण करती सरस्वती ने उनसे पूछा कि कौनसी वस्तु सबसे मीठी है । ( केमिष्ठा ) ? मल्लवादि ने तुरन्त उत्तर दिया गेहूँ के दाने ( वल्ला ) । छः माह बाद पुनः सरस्वती ने उनसे पूछा किसके साथ (केनेति ) । मल्लवादि ने तत्क्षण छः माह पुराने सन्दर्भ के प्रसंग में उत्तर दिया गुड़ और घी के साथ ( गुडघृतेनेति ) । इस अपूर्व स्मरणशक्ति वाले उत्तर से सरस्वती अत्यन्त प्रसन्न हुई और उन्होंने
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जी० ब्यूहलर, पूर्वनिर्दिष्ट, पृ० १५-१६ प्रबन्धकोश - १० हेमसूरिप्रबन्ध लब्धवाणीप्रसादेन मल्लिषेणेन सूरिणा । रच्यते भारतीकल्पः स्वल्पजाप्यफलप्रदः ॥
भैरवपद्मावतीकल्प, परिशिष्ट ११ : सरस्वती मंत्रकल्प ( वस्तुतः भारतीकल्प ) श्लोक ३, सं० के० वी० अभ्यंकर, अहमदाबाद, १९३७, पृ० ६१; मोहनलाल भगवानदास झवेरी, पूर्व निर्दिष्ट, पृ० ३००
गायकवाड़ ओरियन्टल सिरीज़, खण्ड ७, पृ० ५; कनाईलाल भट्टाचार्य, सरस्वती, कलकत्ता, १९८३, पृ० १०९
प्रबन्धचिन्तामणि (अंग्रेजी अनु० सी० एच० टॉनी, दिल्ली, १९८२, पृ० १७१-७२ ), पंचम प्रकाश : ११ प्रकीर्णक प्रबन्ध: मल्लवादिप्रबन्ध (सं० जिनविजयमुनि, भाग – १, सिंघी जैन ग्रन्थमाला १, शांतिनिकेतन, १९३३, पृ० १०७; नृपतिसभायां पूर्वोदितपणबन्धपूर्वकं कण्ठपीठावतीर्णश्रीवाग्देवताबलेन श्री मल्लस्तांस्तरसैव निरूत्तरीचकार ।
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जैनतंत्र साधना में सरस्वती
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मल्लवादि को इच्छित वरदान दिया । प्रभावकचरित (१०/३२ ) के अनुसार सरस्वती ने मल्लवादि को मात्र एक ही श्लोक द्वारा सम्पूर्ण शास्त्र का अर्थ समझने की अलौकिक शक्ति प्रदान की थी :
" श्लोकेनैकेन शास्त्रस्य सर्वमर्थं ग्रहीष्यसि ।"
एक दूसरी कथा वृद्धिवादिसूरि ( लगभग चौथी शती ई० ) से सम्बन्धित है जिसने २१ दिनों के उपवास द्वारा जिनालय में सरस्वती का आह्वान किया था । इस कठिन आराधना से प्रसन्न होकर सरस्वती ने वृद्धवादि को सभी विद्याओं (सर्वविद्यासिद्ध) में पारंगत होने का वरदान दिया था । सरस्वती के वरदान के बाद वृद्धवादि ने मान्त्रिक शक्ति द्वारा प्रज्ञा मूसल पर पुष्पों की वर्षा का सार्वजनिक प्रदर्शन भी किया था ।
प्रबन्धकोश के हरिहर - प्रबन्ध (१२) में भी सारस्वत शक्ति से सम्बन्धित एक रोचक कथा मिलती है । वस्तुपाल के दरबार में गौड़ कवि हरिहर ने गुजरात के कवि सोमेश्वर को अपमानित किया था । सोमेश्वर ने १०८ श्लोकों की रचना की और उसे वस्तुपाल और हरिहर को सुनाया । स्तोत्र सुनकर हरिहर ने कहा कि यह मूल रचना न होकर भोजदेव की रचना की अनुकृति है जिसे उन्होंने "सरस्वती कण्ठाभरण प्रासाद" के संग्रह में देखा था । अपनी बात की पुष्टि में हरिहर ने सम्पुर्ण स्तोत्र ही दुहरा दिया। कुछ समय पश्चात् स्वयं हरिहर ने वस्तुपाल को यह बताया कि सारस्वत मंत्र की साधना के फलस्वरूप प्राप्त अपूर्व स्मरणशक्ति के कारण ही वे १०८ श्लोकों, षट्पदकाव्य तथा अन्य अनेक बातों को केवल एक बार सुनकर ही याद रखने में समर्थ थे । इसी कारण वे सोमेश्वर के १०८ श्लोकों की तत्काल पुनरावृत्ति कर सके थे ।
श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं के ध्यानमंत्रों में तांत्रिक शैली में सरस्वतीपूजन के अनेक सन्दर्भ हैं । जैन ग्रन्थों में देवी को दो, चार या उससे अधिक भुजाओं वाला और विविध आयुधों से युक्त बताया गया है । श्वेताम्बर परम्परा में देवी का वाहन हंस है जबकि दिगम्बर परम्परा में देवी मयूरवाहनी बताई गई हैं । सर्वप्रथम बप्पभट्टिसूरि के शारदास्तोत्र में सरस्वती पूजन का उल्लेख मिलता है । बप्पभट्टि की चतुर्विंशतिका में ऋषभनाथ, मल्लिनाथ और मुनिसुव्रत जिनों के साथ भी श्रुतदेवता के रूप में सरस्वती का आह्वान किया गया है । मल्लिषेणकृत भारतीकल्प एवं सरस्वती-कल्प, हेमचन्द्रसूरिकृत सिद्धसारस्वत- स्तव और जिनप्रभ
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प्रभावकचरित : १० मल्लवादिसूरिचरित २२ - ३५; प्रबन्धचिन्तामणि (सी० एच० टॉनी अनु० ), पृ० १७१-७२
प्रबन्धकोश: वृद्धवादि- सिद्धसेनप्रबन्ध, पृ० १५; प्रभावकचरित ८ वृद्धवादिसूरिचरित, श्लोक ३०-३१
होमकाले गीर्देवी प्रत्यक्षाऽऽसीत् । वरं वृणीष्वेत्याह स्म माम् । मया जगदे - जगदेकमातर । यदि तुष्टाऽसि तदा एकदा भणितानां १०८ सङ्ख्यानां ऋचां षट्पदानां काव्यानां वस्तुकानां धत्तानां दण्डकानां वाऽवधारणे समर्थो भूयासम् । देव्याचष्ट -- तथाऽस्तु ।
प्रबन्धकोश : १२, हरिहर प्रबन्ध पु० ५९-६०
चतुर्विंशतिका ४.१, ७६.१९, ८०.२०
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डॉ० मारुतिनन्दन तिवारी एवं डॉ० कमलगिरि
सूरिकृत शारदास्तवन ( लगभग १४वीं शती ई०) जैसे तान्त्रिक रचनाओं में शान्तिक, पौष्टिक, स्तम्भन, मारण, उच्चाटन जैसे तान्त्रिक साधनाओं में सरस्वती साधना के प्रचुर उल्लेख हैं । तांत्रिक साधनाओं के अन्तर्गत उनके सकलीकरण, अर्चन, यंत्रविधि, पीठ स्थापना, सौभाग्यरक्षा एवं वश्य मंत्रों के भी पर्याप्त उल्लेख हैं । १०वी-११वीं शती ई० में सरस्वती के भयंकर स्वरूपों वाले साधना मंत्र भी लिखे गए । भारतीकल्प, अर्हदासकृत सरस्वतीकल्प, शुभचन्द्रकृत सारस्वतमंत्रपूजा (लगभग १०वी शती ई०) एवं एकसंधिकृत जिन संहिता में त्रिनेत्र एवं अर्द्धचन्द्र से युक्त जटाधारी सरस्वती को भयंकर स्वरूपा और हुंकारनाद करने वाली बताया गया है ।" उपर्युक्त विशेषताएँ देवी की शिव से निकटता भी दर्शाती हैं । बप्पभट्टि ने सरस्वतीकल्प में देवी का आह्वान भी गौरी नाम से हीं किया है। उल्लेख्य है कि स्कन्दपुराण के सूतसंहिता (लगभग १३वीं शती ई०) में भी जटा से शोभित सरस्वती त्रिनेत्र तथा अर्द्धचन्द्र युक्त निरूपित हैं । सरस्वती के करों में अंकुश और पाश का उल्लेख भी उनके शक्ति स्वरूप को ये आयुध सम्भवतः सरस्वती द्वारा अज्ञानरूपी अन्धकार को दूर करने तथा नियंत्रण के भाव को व्यक्त करते हैं । जैन ग्रन्थों में सरस्वती को काली, कपालिनी, कौली, विज्ञा, त्रिलोचना, रौद्री खड्गिनी, कामरूपिणी, नित्या, त्रिपुरसुन्दरी, चन्द्रशेखरी, शूलिनी, चामुण्डा, हुंकार एवं भैरवी जैसे नामों से भी सम्बोधित किया गया है जो उनके तांत्रिक स्वरूप को और भी स्पष्ट करती हैं । " विद्यानुशासन ( लगभग १५वीं शती ई०) में भयंकर दर्शना त्रिनेत्र वागीश्वरी को तीक्ष्ण और लम्बे दांतों तथा बाहर निकली हुई जिह्वा वाली बताया गया है । वर्द्धमानसूरि (लगभग १४१२ ई०) ने आचारदिनकर में सरस्वती की गणना ६४ योगिनियों में भी की है।
कुछ जैन ग्रन्थों में ही प्रकट करता है | उस पर देवी के पुर्ण
सरस्वतीकल्प, भारतीकल्प एवं सरस्वतीयंत्रपूजा में सरस्वती को साधना के लिए विभिन्न चामत्कारिक यंत्रों के निर्माण से सम्बन्धित विस्तृत उल्लेख भी मिलते हैं । " सरस्वती यंत्रों में
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अभयज्ञानमुद्राक्षमालापुस्तकधारिणी ।
त्रिनेत्रा पातु मां वाणी जटाबालेन्दुमण्डिता ॥ - भारतीकल्प श्लोक २
सारस्वतयंत्रपूजा (यू०पी० शाह के लेख आइकनोग्राफी ऑव सरस्वती के पृ० २०१, पाद टिप्पणी २९, पृ० २११, पाद टिप्पणी ७१ से उद्धृत |
सरस्वती-कल्प -- श्लोक ६, भैरवपद्मावती कल्प के १२वें परिशिष्ट के रूप में ।
टी० ए० गोपीनाथ राव, एलिमेण्ट्स ऑव हिन्दू आइकनोग्राफी, खण्ड १, भाग २, दिल्ली, १९७१ (पु० मु० ), पृ० ३७८
अंकुश और पाश क्रमशः इन्द्र और वरुण ( और यम) के मुख्य आयुध रहे हैं जो तांत्रिक देवों के भी प्रमुख आयुध हैं । सरस्वती के हाथों में इन आयुधों का दिखाया जाना भी उनके शक्ति पक्ष को प्रकट करता है ।
श्रीसरस्वतीस्तोत्र, जैन स्तोत्र सन्दोह, खण्ड १, १०७, पृ० ३४५-४६.
यू० पी० शाह के लेख - 'सुपर नेचुरल बीइंग्स इन दि जैन तंत्राज', आचार्य ध्रुव स्मृति ग्रन्थ, भाग ३, अहमदाबाद, १९४६, पृ० ७५.
आचारदिनकर, भाग २, प्रतिष्ठाविधि ( भगवती मण्डल), बम्बई, १९२३, पृ० २०७.
यू० पी० शाह, 'आइकनोग्राफी ऑव सरस्वती', पृ० २११-१२.
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जैनतंत्र साधना में सरस्वती
१६५ कभी-कभी सरस्वती परिवार के भी विस्तृत और रोचक सन्दर्भ हैं । बप्पभट्टिसूरिकृत सरस्वतीकल्प की यंत्र पूजा में सरस्वती मण्डल या यंत्र में मोहा, नन्दा, भद्रा, जया, विजया, अपराजिता, जम्भा, स्तम्भा, १६ महाविद्याओं (रोहिणी, प्रज्ञप्ति आदि), अष्टदिक्पालों, अष्टमातृकाओं' तथा अष्टभैरवों के पूजन के भी उल्लेख हैं । बप्पभट्टि और मल्लिषेण ने सरस्वती-यंत्र - पूजा-विधि में अष्ट, द्वादश, षोडश, चौसठ, १०८ तथा एक हजार पंखुड़ियों वाले पद्म पर बनाये जाने वाले कुछ यंत्रों, होमकुण्ड में सम्पन्न विभिन्न तांत्रिक क्रियाओं एवं दस हजार, बारह हजार, एक लाख तथा इससे भी अधिक बार सरस्वती मंत्रों के जाप की बात बताई है। सरस्वतीकल्प में इन तांत्रिक साधनाओं को सिद्धसारस्वत बीज कहा गया है ।
भट्टिसूरिकृत शारदास्तोत्र में ही सर्वप्रथम सरस्वती से सम्बन्धित मंत्र (ओम्, ह्रीम्, क्लीम्, ब्लिम् श्रीहसकल होम् ऐं नमो ) का उल्लेख हुआ है। दस हजार होमों के साथ एक लाख बार इस मंत्र का जाप करने से साधक को अद्वितीय विद्वत्ता प्राप्त होती है ।" इसी ग्रन्थ में आगे यह भी उल्लेख है कि सरस्वती की साधना से साधक चातुर्य चिन्तामणि बन जाता है । विद्यानुवादांगजिनेन्द्र कल्याणाभ्युदय में सरस्वती से सम्बन्धित एक अन्य मंत्र (ओम् ऐं हसक्लीम् वाग्देव्यै नमः) का उल्लेख मिलता है ।" जिनप्रभसूरि के शारदास्तवन में वर्णित सारस्वत मंत्र इस प्रकार है : 'ओम् ऐं ह्रीम् श्रीम् वद वद वाग्वादिनी भगवती सरस्वती तुभ्यम् नमः' | " कुण्डलिनी योग के ज्ञाता बप्पभट्ट के अनुसार सारस्वत मंत्रोच्चारण महाप्रज्ञाबुद्धि, वाग्सिद्धि, वचनसिद्धि तथा काव्यसिद्धि जैसी शक्तियों को देने वाला है । "
मल्लिषेण ने भारतीकल्प में 'ओम् होम् श्रीम् वद वद वाग्वादिनी स्वाहा' को सरस्वती का मूलमंत्र बताया है ।" मल्लिषेण के अनुसार होम सहित १२ हजार बार इसके मंत्रोच्चार से साधक सरस्वती के समान ( वागीश्वरी सम) हो जाता है ।' " मल्लिषेण ने सारस्वत शक्ति की प्राप्ति से
ब्रह्माणी, माहेश्वरी, कौमारी, वाराही, वैष्णवी, चामुण्डा, चण्डिका और महालक्ष्मी-सरस्वती कल्प, पृ० ७३.
सरस्वतीकल्प, परिशिष्ट १२ – पद्मावतीकल्प, पृ० ६९-७६.
भैरवपद्मावती कल्प के परिशिष्ट ११ और १२ में यंत्रपूजा का विस्तृत उल्लेख हुआ है : पृ० ६१-७८.
४. चतुविशतिका के परिशिष्ट - शारदास्तोत्र के श्लोक १० में ( पृ० १८३ ) सरस्वती का बीजमंत्र
दिया गया है ।
१.
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८.
९.
१०.
११.
शारदास्तोत्र, श्लोक १०.
न स्यात् कः स्फुटवृत्तचक्ररचनाचातुर्य चिन्तामणिः ॥
सरस्वतीकल्प, श्लोक ६.
यू० पी० शाह, 'आइकनोग्राफी ऑव सरस्वती', पृ० २०७, पा० टि० ५७.
मोहनलाल भगवानदास झवेरी, पूर्व निविष्ट, पू० ३२२.
हेमचन्द्र ने अपने शिष्यों की बौद्धिक शक्ति में वृद्धि के लिए सारस्वतमंत्र के साथ चन्द्रचन्दन गुटी के भक्षण का विधान किया था । सरस्वतीकल्प, पृ० ७८.
भारतीकल्प, पृ० ६२.
भारतीकल्प, श्लोक १५, पृ० ६२.
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डॉ० मारुतिनन्दन तिवारी एवं डॉ० कमलगिरि
सम्बन्धित विभिन्न यंत्रों और मंत्रों का भी विस्तृत उल्लेख किया है । भारतीकरूप में तो देवी के भयानक स्वरूप वाले वामाचार साधना के भी स्पष्ट सन्दर्भ हैं । इनमें स्त्रीमोहन तथा काम इच्छा पूर्ति से सम्बन्धित मंत्र विशेषतः उल्लेखनीय हैं। नवाक्षरो विद्या की तंत्र साधना “सुभगायोना" की उपस्थित में सम्पन्न होती थी । इस ग्रन्थ में सुन्दर स्त्रियों और देवांगनाओं ( वनिता कपाल यंत्र) को सम्मोहित करने वाले तथा शत्रुओं को अकाल मृत्यु देने और प्रेतालय भेजने से सम्बन्धित यंत्रों तथा मंत्रों का भी वर्णन हुआ है । उच्चाटन मंत्रों में फट् वषट् और स्वाहा जैसी तांत्रिक अभिव्यक्तियों का प्रयोग होता था । ये साधनायें श्मशान जैसे स्थलों पर की जाती थीं । इन साधनाओं से सम्बन्धित मंत्रोच्चार सुनने में भयावह होते थे । इनमें देवी के पाश, अंकुश और बाण जैसे आयुधों से युक्त भयंकर स्वरूप का ध्यान किया गया है । ग्रन्थों में सरस्वती मंत्र सिद्धि के समय आने वाली विभिन्न बाधाओं को दूर करने वाले सुरक्षा मंत्रों के भी उल्लेख हैं । "
एलोरा (महाराष्ट्र), नालन्दा ( बिहार ), कुकिंहार ( बिहार ), गुर्गी ( रीवा, मध्य प्रदेश), हिंगलाजगढ़ (मन्दसोर, मध्य प्रदेश), लोखारी (बांदा, उत्तर प्रदेश), मल्हार (विलासपुर, मध्य प्रदेश), भुवनेश्वर (उड़ीसा) एवं भेड़ाघाट (त्रिपुरी, मध्य प्रदेश) जैसे स्थलों से मिली तांत्रिक प्रभावशाली बौद्ध एवं ब्राह्मण मूर्तियों की तुलना में जैन सरस्वती प्रतिमाओं में तंत्र का प्रभाव अत्यल्प रहा है । जैन परम्परा में मध्य काल में सरस्वती पूजन में तांत्रिक भाव की पूर्व स्वीकृति के बाद भी उनकी प्रतिमाओं में तांत्रिक प्रभाव बहुत कम दिखाई देता है। जैन मूर्तियों में सर्वदा सरस्वती का अनुग्रहकारी शान्त स्वरूप ही प्रदर्शित हुआ है । केवल कुछ ही उदाहरणों में विद्या, संगीत और अन्य ललितकलाओं की देवी सरस्वती के साथ शक्ति के कुछ तांत्रिक भाव वाले लक्षण मिलते हैं ।
जैन और ब्राह्मण परम्परा में सरस्वती के लक्षणों में अद्भुत समानता देखने को मिलती है । दोनों ही परम्पराओं की प्रतिमाओं में सरस्वती के करों में पुस्तक, वीणा, अक्षमाला, कमण्डलु, स्रुक, अंकुश तथा पाश जैसे आयुध दिखाये गये हैं । जैन ग्रन्थ आचारविनकर में उपर्युक्त आयुधों का उल्लेख जैन श्रुतदेवता और ब्राह्मणी दोनों ही के साथ हुआ है । सरस्वती के समान ही इसमें चतुर्भुजा, हंसवाहनी, ब्राह्मणी भी वीणा, पुस्तक, पद्म तथा अक्षमाला से युक्त बतायी गयी हैं । यद्यपि जैन ग्रन्थों में सरस्वती के साथ स्रुक का अनुल्लेख है, पर मूर्त उदाहरणों में उनके साथ सुक का अंकन अनेकशः मिलता है जो व्यावहारिक स्तर पर स्पष्टतः सरस्वती के ब्रह्मा से सम्बन्धित होने का संकेत है।
भारतीकल्प, श्लोक ६५-७६.
यद्यपि कुछ ध्यान मंत्रों में सरस्वती को जटा में अर्धचन्द्र और त्रिनेत्र से युक्त बताया गया है, किन्तु मूर्त उदाहरणों में ये विशेषताएँ नहीं मिलती हैं ।
३.
ॐ ह्रीं श्रीं भगवति वाग्देवते वीणापुस्तकमौक्तिकाक्षवलयश्वे ताब्जमण्डितकरे शशधरनिकर गौरि हंसवाहने इह प्रतिष्ठा महोत्सवे आगच्छ
१.
२.
४.
आधारदिनकर, भाग २, पृ० १५८ (बम्बई, १९२३) ये मूर्तियां कुंभारिया के पार्श्वनाथ मन्दिर (पूर्वी भिति ल० १२वीं शती ई० ), तारंगा के अजितनाथ मन्दिर ( १२वीं शती० ई०), आबू के विमलवसही (देवकुलिका ४८ का वितान ल० ११५० ई० ) और जालोर के महावीर मन्दिर ( १२वीं शती ई०) में हैं ।
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जैनतंत्र साधना में सरस्वती प्रारम्भिक जैन ग्रन्थों में द्विभुजी सरस्वती को पुस्तक और पद्म (या जलपात्र या अक्षमाला) लिए तथा हंस पर आरूढ़ बताया गया है।' शुभचन्द्रकृत सरस्वतीयंत्र-पूजा में मयूरवाहनी द्विभुजी सरस्वती त्रिनेत्र तथा करों में अक्षमाला और पुस्तक से युक्त निरूपित हैं। शास्त्र और शिल्प दोनों में सरस्वती का चतुर्भुजी रूप ही सर्वाधिक लोकप्रिय था। वाहन के अतिरिक्त दोनों हो सम्प्रदायों में देवी के लक्षण समान हैं। श्वेताम्बर ग्रन्थों में सरस्वती को वरदमुद्रा, पद्म, पुस्तक और अक्षमालाधारी बताया गया है।' बप्पभट्टिसूरि कृत सरस्वतीकल्प (लगभग १०वी-११वीं शती ई०) में सरस्वती के आयुधों के दो समूह वर्णित हैं; एक में देवी अभयमुद्रा, वरदमुद्रा, पुस्तक और पद्म तथा दूसरे में अभय और वरदमुद्रा के स्थान पर वीणा और अक्षमाला से युक्त बताई गई हैं । मल्लिषेण के भारतीकल्प (लगभग ११वीं शती ई०) में देवी के अभयमुद्रा, ज्ञानमुद्रा, अक्षमाला और पुस्तक से युक्त स्वरूप का ध्यान किया गया है ।५ नवीं शती ई० के बाद श्रुत देवता यानी सरस्वती को संगीत की देवी के रूप में भी प्रतिष्ठित किया गया और वरदमुद्रा के स्थान पर उनके साथ वीणा का प्रदर्शन किया गया। संगीत से सम्बद्ध होने के बाद ही नृत्य के प्रतीक मयूर को देवी का वाहन बनाया गया। जिनेन्द्र कल्याणाभ्युदय में सरस्वती के एक हाथ में वीणा के स्थान पर पाश का उल्लेख मिलता है। पादलिप्तसूरि(तृतीय)कृत निर्वाणकलिका (लगभग ९००ई०) में सरस्वती के करों में पुस्तक, अक्षमाला, पद्म, वरदमुद्रा तथा कुछ अन्य आयुधों का उल्लेख हुआ है।
सरस्वती की प्रारम्भिकतम प्रतिमा कंकालीटीला, मथुरा ( १३२ या १४९ ई० ) से प्राप्त हई है।' सम्प्रति यह मूर्ति राज्य संग्रहालय, लखनऊ में है। पीठिका पर उकडूं बैठी द्विभुजी देवी के १. बप्पभट्टिसूरि के चतुर्विशतिका (७६.१९) एवं शारदा स्तोत्र (श्लोक १-२, ८) में सरस्वती
के आयुधों के दो स्वतंत्र समूह वर्णित हैं। इनमें सरस्वती के करों में कमण्डलु और अक्षमाला
एवं पुस्तक और पद्म के उल्लेख हैं। २. यू० पी० शाह, 'आइकनोग्राफी ऑव सरस्वती', पृ० २०१, पा० टि० २९. ३. तथा श्रुतदेवतां शुक्लवर्णां हंसवाहनां चतुर्भुजा वरदकमलान्वितदक्षिणकरां पुस्तकाक्षमालान्वितवामकरां चेति ।
निर्वाणकलिका (पादलिप्तसूरिकृत-ल० ९०० ई.) १० ३७. (सं० मोहनलाल भगवानदास, मुनि श्री मोहनलाल जी जैन ग्रन्थमाला ५, बम्बई, १९२६) ""चोर्ध्वरूपामभयदवरदां पुस्तकाम्भोजपाणि । -सरस्वतीकल्प, श्लोक ११ . वीणापुस्तकमौक्तिकाक्षवलयश्वेताब्जवल्गत्करां ।-सरस्वतीकल्प, श्लोक ६." अभयज्ञानमुद्राक्षमालापुस्तकधारिणी । त्रिनेत्रा पातुभां वाणी जटाबालेन्दुमण्डिता ॥-भारतीकल्प, श्लोक २. मौक्तिकाक्षवलयाब्जकच्छपीपुस्तकाङ्कितकरोपशोभिते ।
श्रीशारदास्तवन (जिनप्रभसूरिकृत, ल० १२६३-१३३३ ई०) श्लोक ७ :
भैरवपद्मावतीकल्प (पृ० ८१) से उद्धृत ७. यू० पी० शाह, 'आइकनोग्राफी आंव सरस्वतो', पृ० २०७, पाद टिप्पणी ५८. ८. यू० पी० शाह, पूर्व निर्दिष्ट, पृ० २११, पादटिप्पणी ७०. ९. के० डी० बाजपेयी, 'जैन इमेज ऑव सरस्वती इन दि लखनऊ म्यूजियम', जैन एन्टिक्वेरी, खण्ड ११, अ० २, जनवरी, १९४६, पृ० १-४,
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डॉ० मारुतिनन्दन तिवारी एवं डॉ. कमलगिरि बायें हाथ में पुस्तक है, जबकि दाहिना हाथ खण्डित है (किन्तु अवशिष्ट भाग में अभयाक्ष स्पष्ट है)। हंसवाहन यहाँ नहीं दिखाया गया है। दिगम्बर स्थल देवगढ़ ( ललितपुर, उत्तर प्रदेश ) से लगभग नवीं से १२वीं शती ई० के मध्य की सरस्वती की कई स्वतंत्र प्रतिमायें मिली हैं। इनमें द्विभुजी और चतुर्भजी देवी कभी हंस और कभी मयूर पर आरूढ़ है। २४ यक्षियों के सामूहिक निरूपण (मन्दिर १२, ८६२ ई०) में भी सरस्वती की दो मूर्तियाँ आकारित हैं। अभिनन्दन तथा सुपार्श्वनाथ जिनों की यक्षियों को यहाँ लेखों में "भगवती सरस्वती" और "मयूरवाहि(नी)" कहा गया है।' देवगढ़ के मन्दिर (११वीं शती ई०) की त्रितीर्थी जिन प्रतिमा में सरस्वती का अंकन विशेष महत्त्व का है। इस त्रितीर्थी जिन प्रतिमा में दो जिनों के साथ बायों ओर सरस्वती की भी आकृति बनो है, जो आकार में जिन मूर्तियों के बराबर है। इस प्रकार श्रुतदेवता को यहाँ जिनों के समान प्रतिष्ठा प्रदान की गई है। त्रिभंग में खड़ी चतुर्भजी सरस्वती के करों में वरदमुद्रा, अक्षमाला, पद्म और पुस्तक है तथा समीप ही मयुर वाहन की आकृति भी बनी है। देवगढ़ में द्विभुजी सरस्वती के हाथों में सामान्यतः अभयमुद्रा और पुस्तक दिखाया गया है (मन्दिर संख्या १६) । धम्मिल्ल या जटाजूट से शोभित देवगढ़ की चतुर्भजी प्रतिमाओं में देवी के करों में वरदमुद्रा, व्याख्यान-अक्षमाला, सनालपद्म तथा पुस्तक प्रदर्शित हैं। एक उदाहरण में (मन्दिर संख्या १९) पुस्तक, व्याख्यान-मद्रा और मयूरपीच्छिका लिए सरस्वती के साथ चामरधारी सेवकों, जिनों एवं जैन आचार्यों की भी आकृतियां उकेरी हैं। यह प्रतिमा स्पष्टतः देवी के जिनवाणी या आगमिक ग्रन्थों की अधिष्ठात्री देवी होने का भाव दरशाती है।
दिगम्बर स्थल खजुराहो (छतरपुर, मध्य प्रदेश) में देवी की कुल आठ मूर्तियाँ हैं। एक उदाहरण को छोड़कर अन्य सभी में देवी चतुर्भुजी हैं। लगभग ९५० ई० से ११०० ई० के मध्य की इन मूर्तियों में देवो ललितमुद्रा में पुस्तक, वीणा (एक या दोनों हाथों में), पद्म (सामान्यतः दोनों हाथों में) और वरदमुद्रा (या जलपात्र या अक्षमाला) के साथ निरूपित हैं। उनके साथ हंस वाहन केवल पार्श्वनाथ मन्दिर (लगभग ९५०-७० ई०) के उत्तरी अधिष्ठान की मूर्ति में ही उत्कीर्ण है। इसी मन्दिर के दक्षिणी अधिष्ठान की मूर्ति में सरस्वती षड्भुजी हैं और उनके ऊपर के दो हाथों में पद्म और पुस्तक हैं, तथा मध्य के दोनों हाथ वीणा वादन कर रहे हैं; शेष दो हाथों में वरदमुद्रा तथा जलपात्र हैं। देवी के साथ चामरधारिणी सेविकायें, मालाधर एवं लघु जिन आकृतियाँ भी आकारित हैं।
कर्नाटक के विभिन्न स्थलों से भी दिगम्बर परम्परा की कुछ सरस्वती प्रतिमायें मिली हैं। इनमें देवी के शक्ति पक्ष को उजागर किया गया है। ११वीं-१२वीं शती ई० की ऐसी तीन मूर्तियाँ
क्लाज़ बून, वि जिन इमेजेज ऑव देवगढ़, लिडेन; १९६५, पृ० १०२, १०५ : सुपार्श्वनाथ की चतुर्भुजा मयूरवाहना यक्षी त्रिभंग में खुदी है और उसके करों में व्याख्यानमुद्रा, चामर-पद्म, पुस्तक और शंख है। तीन उदाहरणों में से दो मन्दिर सं० १२ और १९ में हैं जबकि तीसरा चहारदीवारी के प्रवेश
द्वार पर है। ३. पार्श्वनाथ मन्दिर के दक्षिण अधिष्ठान की मूर्ति ।
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जैनतंत्र साधना में सरस्वती क्रमशः पंचकूट बस्ती (हुम्चा, शिमोगा), शान्तिनाथ बस्ती (जिननाथपुर) तथा आदिनाथ मन्दिर (हलेबिड, हासन) से मिली है।' ध्यान-मुद्रा में विराजमान सरस्वती के साथ वाहन नहीं दिखाया गया है। देवी के करों में अभयाक्ष, अंकुश, पाश तथा पुस्तक प्रदर्शित हैं। इन मूर्तियों में विशाल एवं खुले नेत्रों और खुले तथा कुछ फूले हुए ओठों के माध्यम से देवी के शक्ति स्वरूप को प्रकट करने की चेष्टा की गयी है।
पश्चिमी भारत के श्वेताम्बर जैन मन्दिरों, विशेषतः ओसियां, कुंभारिया, दिलवाड़ा (माउण्ट आबू) और तारंगा, में भी सरस्वती की पर्याप्त मूर्तियाँ हैं। ओसियां (जोधपुर, राजस्थान) के महावीर मन्दिर (८वीं शती ई०) की द्विभुजी और चतुर्भुजी प्रतिमाओं में देवी मयूर या हंस वाहन हैं। द्विभुजी देवी पद्म और पुस्तक, तथा चतुर्भुजी देवी (मुखमण्डप-पश्चिम), स्रुक, पद्म, पद्म एवं पुस्तक से युक्त हैं। ओसियां की जैन देव-कुलिकाओं (लगभग १०वीं-११वीं शती ई०) की चतुर्भजी मूर्तियों में हंसवाहना देवी की दो भुजाओं में पुस्तक और पद्म तथा दो में अभयमुद्रा और जलपात्र (या वरदाक्ष और पुस्तक) हैं।
कुंभारिया (बनासकांठा, गुजरात) के महावीर, शान्तिनाथ, पार्श्वनाथ, नेमिनाथ और सम्भवनाथ मन्दिरों (११वीं से १३वीं शती ई०) पर भी सरस्वती की कई मूर्तियां हैं। इनमें ललितासीन सरस्वती हंसवाहना और चतुर्भुजा हैं। देवी के करों में वरदमुद्रा (या अभयमुद्रा या वरदाक्ष), पद्म, पुस्तक और जलपात्र (या फल) प्रदर्शित हैं। शान्तिनाथ मन्दिर (नवचौकी वितान) के एक उदाहरण में देवी के साथ दो नृत्यांगनायें भी आमूर्तित हैं । राजस्थान के पाली जिले में स्थित घाणेराव के महावीर मन्दिर (देवकुलिका, ११५६ ई०), तथा नाडोल के पद्मप्रभ मन्दिर (११वीं शती ई०) की मूर्तियों में ललितासीन सरस्वती के साथ वाहन नहीं दिखाया गया है। इनमें चतुर्भुजा देवी के हाथों में वरद या अभयमुद्रा, पुस्तक, वीणा तथा जलपात्र (या फल) प्रदर्शित हैं। माउण्ट आबू (राजस्थान) के विमलवसही (१२वीं शती के अन्त) और लूणवसही (१३वीं शती ई०) तथा तारंगा (मेहसाणा, गुजरात) के अजितनाथ मन्दिर (१२वीं शती ई०) के उदाहरणों में सरस्वती द्विभुजी, चतुर्भुजी, षड्भुजी, अष्टभुजी और षोडशभुजी हैं। देवी की भुजाओं की संख्या में वृद्धि भी भी उनके शक्ति पक्ष को ही प्रकट करती है। हंसवाहना चतुर्भुजी देवी सामान्यतः वरद (या अभयमुद्रा), पद्म, पुस्तक (या स्रुक या वीणा) तथा फल (या जलपात्र) से युक्त हैं।
विमलवसही की दो सरस्वती प्रतिमायें विशेषतः उल्लेखनीय हैं। दक्षिी बरामदे के वितान की मूर्ति में देवी दो पुरुष आकृतियों से आवेष्टित हैं। नमस्कारमुद्रा में निरूपित इन आकृतियों के नीचे उनके नाम भी खुदे हैं। दाहिने पार्श्व की श्मश्रुयुक्त आकृति को लेख में “सूत्रधार लोयण" और बायें पार्श्व की मापक दण्ड से युक्त आकृति को "सूत्रधार केला" बताया गया है। ये दोनों क्रमशः
१. समान लक्षणों वाली एक मूर्ति तमिलनाडु के तिरुपत्तिकुणरम् के मन्दिर में भी है। २. पार्श्वनाथ मन्दिर की पूर्वी भित्ति की मूर्ति में पद्म के स्थान पर स्रुक दिखाया गया है। इसी
मन्दिर की कुछ अन्य मूर्तियों में पुस्तक के स्थान पर वीणा प्रदर्शित है। कुंभारिया के नेमिनाथ मन्दिर की कुछ मूर्तियों में पद्म और जलपात्र के स्थान पर झुक और वीणा दिखाये
गये हैं।
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डॉ० मारुतितन्दन तिवारी एवं डॉ. कमलगिरि मन्दिर के मुख्य स्थपति और शिल्पी थे ।' प्रस्तुत मूर्ति सरस्वती के ललितकलाओं की देवी होने का स्पष्ट उदाहरण है। विमलवसही की भ्रमिका के वितान की एक षोडशभुजी मूर्ति में हंसवाहना देवी भद्रासन पर ललितमुद्रा में बैठी हैं और उनके हाथों में वरद-मुद्रा, शंख (वैष्णवी का लक्षण), वीणा (दो में), पाश, कर्तरोमुद्रा, लघुदण्ड (दो में-सम्भवतः मापक दण्ड), शृङ्खला (दो में), अंकुश, अभयाक्ष, फल, पुस्तक और जलपात्र हैं। दोनों पार्यों में नृत्यरत पुरुष आकृतियां भी बनी हैं जो देवी के संगीत की अधिष्ठात्री देवी होने की सूचक हैं।
लूणवसही में हंसवाहना देवी की चतुर्भजी और षड्भुजी मूर्तियां हैं। नवचौकी के चार स्तम्भों में से प्रत्येक पर सरस्वती की आठ-आठ लघु आकृतियां उकेरी हैं। इनमें चतुर्भुजा सरस्वती वरदमुद्रा (या वरदाक्ष), सनालपद्म (या पुस्तक), पुस्तक (या वीणा) और जलपात्र से युक्त हैं। दो उदाहरणों में सरस्वती चतुर्भजी हैं। ये उदाहरण देवकूलिका ११ की छत और रंगमण्डप के समीपवर्ती छत (उत्तर) पर उत्कीर्ण हैं। प्रथम उदाहरण में हंसवाहना देवी अभयाक्ष, पद्म (दो में), जलपात्र तथा ज्ञान-मुद्रा (मध्य की भुजाओं में) से युक्त हैं। दूसरे उदाहरण में देवी संगीत की देवी के रूप में निरूपित हैं। यहाँ देवी के दो हाथों में मंजीरा तथा एक में वीणा प्रदर्शित हैं; शेष में वरदाक्ष, चक्राकार पद्म और पुस्तक हैं।
तारंगा के अजितनाथ मन्दिर की चतुर्भुजी मूर्तियों में हंसवाहना देवी के करों में वरदमुद्रा, अंकुश (या स्रुक या पद्म या वीणा), पुस्तक तथा जलपात्र (या फल) प्रदर्शित हैं। मूलप्रासाद पश्चिमी भित्ति की मूर्ति में देवी षड्भुजी हैं और उनके हाथों में वरदमुद्रा, सूक, पुस्तक, पद्म और जलपात्र हैं। त्रिभंग (या अतिभंग) में खड़ी अष्टभुजी देवी की भी दो मूर्तियां हैं। इनमें देवी वरदमुद्रा, पद्म (या माला), पद्मकलिका, पुस्तक, पाश (या छत्रपद्म), पद्म-कलिक (या पाश), कलश और पुस्तक लिए हैं ।
जैन सरस्वती की प्रतिमाओं में निःसन्देह पल्लू (बीकानेर, राजस्थान) से प्राप्त दो प्रतिमायें कलात्मक दृष्टि से सर्वोत्कृष्ट हैं। समान लक्षणों वाली इन प्रतिमाओं में से एक राष्ट्रीय संग्रहालय, दिल्ली (संख्या १/६/२७८) और दूसरी बीकानेर के गंगा गोल्डेन जुबिली संग्रहालय (संख्या २०३) में सुरक्षित है। लगभग ११वीं शती ई० की इन त्रिभंग प्रतिमाओं में पद्मपीठिका पर लघु हंस आकृति भी बनी है। सौम्य स्वरूपा मनोज्ञ देवी करण्ड मुकुट और अन्य सुन्दर आभूषणों से सज्जित हैं। चतुर्भुजी देवी के करों में वरदाक्ष, पूर्ण विकसित पद्म, पुस्तक और जलपात्र हैं। पार्यों में वीणा और वेणु बजाती दो-दो स्त्री आकृतियां भी आकारित हैं, जो देवी की संगीत शक्ति की मूर्त अभिव्यक्ति है। गंगा गोल्डेल जुबिली संग्रहालय की मूर्ति में प्रभातोरण पर १६ महाविद्याओं की भी आकृतियां बनी हैं, जो सरस्वती की शक्ति अवधारणा को परिपुष्ट करती हैं ।
१. जयन्तविजय मुनि, होली आबू (अंग्रेजी अनु० यू० पी० शाह), भावनगर, १९५४, पृ० ५५,
पादटिप्पणी २. २. ये मूर्तियां मूलप्रासाद के क्रमशः दक्षिणी और उत्तरी भित्ति पर उकेरी गयी हैं । ३. बी० एन० शर्मा, जैन इमेजेज, दिल्ली, १९७९, पृ० १५-१९,
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________________ जैनतंत्र साधना में सरस्वती नवीं शती ई० के उत्तरार्द्ध में सिद्धायिका या सिद्धायिनी नाम से सरस्वतो तीर्थंकर महावीर की यक्षी के रूप में भी निरूपित हुई।' सम्पूर्ण आगमिक साहित्य मूलतः महावीर की वाणी है / इसी कारण श्रुत देवता के रूप में आगमिक ज्ञान की अधिष्ठात्री देवी सरस्वती को उनकी यक्षी भी बनाया गया। सरस्वती के समान ही श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों ही परम्पराओं में यक्षी सिद्धायिका को भी पुस्तक और वीणा के साथ निरूपित किया गया है। महावीर का वाहन सिंह है, सम्भवतः इसी कारण सिद्धायिका यक्षी का वाहन भी सिंह हुआ। पर एक कन्नड़ी ध्यान श्लोक में सिद्धायिका का वाहन हंस भी बताया गया है। कला-इतिहास विभाग, काशी हिन्दूविश्वविद्यालय, वाराणसी-५ द्रष्टव्य, यू० पी० शाह, 'यक्षिणी ऑव दि ट्रवेण्टो-फोर्थ जिन महावीर', जर्नल ओरियण्टल इन्स्टिट्यूट, बड़ौदा, खण्ड 22, अ० 1-2, सितम्बर 1972, पृ० 70-75; मारुतिनन्दन प्रसाद तिवारी, एलिमेण्टस ऑव जैन आइकनोगफी, वाराणसी, 1983, पृ० 58-64. 2. . त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (हेमचन्द्रकृत) 10.5.12-13; निर्वाणकलिका 18.24; मंत्राधि राजकल्प (सागरचन्द्रसूरिकृत) 3.66; आचारदिनकर-प्रतिष्ठाधिकार 34.1; प्रतिष्ठासारसंगह 5.73-74. 3. यू० पी० शाह, पूर्व निर्दिष्ट, पृ० 75.