Book Title: Jain Shasan Author(s): Sumeruchand Diwakar Shastri Publisher: Bharatiya Gyanpith View full book textPage 8
________________ और सुवोध बनाकर धर्मके सहज सुन्दर रूपके दर्शन करानेका प्रयत्न किया है । उन्हें इसमे पर्याप्त सफलता मिली है। 'जैनशासन' का केन्द्रबिन्दु जीवनकी उपलब्धि है - वह जीवन जो प्राणियो के लिए सम्पूर्ण सुखकी कल्पना करता है और उसकी प्राप्ति के उपाय बताता है। इस रूपमे जैनधर्मं किसी समुदायविशेषका धर्म नही, वह मानवमात्र - प्राणीमात्र - का धर्म है, तत्त्वचर्चामे और दार्शनिक ऊहापोहमे सभीका मत एक नही होता। भारतीय दर्शन मतविभिन्नता के कारण ही समृद्ध है । दार्शनिक चर्चाके प्रसगमे लेखकने अनेक स्थलो पर ऐसे तर्क और प्रमाण दिये है जो कई दार्शनिक विद्वानोके लिए चुनौती है। जहा शुद्ध धर्मतत्त्वका वर्णन है, वहा बुद्धि और भावनाका ऐसा सुन्दर सामञ्जस्य हुआ है कि चुनौतीकी गुजायश ही नही । पुस्तकमे स्थान-स्थान पर श्लोक, दोहे, छन्द, शैर और अन्य उद्धरण देकर लेखकने तर्क को निरर्थक कर दिया है - पाठकको वही तत्त्वकी सहज प्राप्तिका आनन्द मिलता है । विद्वान् लेखकने जिस आत्म-शुद्धि और धर्म प्रचारकी भावनासे पुस्तक लिखी है, भारतीय ज्ञानपीठने उसी भावनासे प्रकाशनका उत्तरदायित्व लिया है। हम लेखकके प्रति हृदयसे आभारी है। लक्ष्मीचन्द्र जैनPage Navigation
1 ... 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66 67 68 69 70 71 72 73 74 75 76 77 78 79 80 81 82 ... 517