Book Title: Jain_Satyaprakash 1954 07
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

View full book text
Previous | Next

Page 11
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सं. १५०४ के विजययन्त्रपट्टका लंदन प्रवास लेखक : श्रीयुत अगरचंदजी भंवरलालजी नाहटा. भारतीय चित्रकला की परम्परा अतिप्राचीन है । राजमहलों, सभाभवनों की शोभाकी अभिवृद्धि के निमित्त निर्मित भित्तिचित्रों का उल्लेख प्राचीनतम जैनागमादिमें पाये जाते ही हैं । उन वर्णनोंमें कई ऐसे विशिष्ट चित्रकारोंका भी निर्देश है जिनको इस कलामें सिद्धि मिली थी। किसी व्यक्तिविशेषके लघुतम अवयवको देखकर वे उसका सम्पूर्ण तादृश चित्र बनाने में सिद्धहस्त थे । पशु-पक्षियों आदिके चित्र भी इतने सुन्दर और बहू बनाये जाते थे कि बहुतवार दर्शक उन्हें सजीव समझकर पकड़नेके लिये हाथ डालने पर हास्यास्पद बनते थे । घरों की शोभा प्रमुख उपादनों में चित्रोंके निर्माणको महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था । भित्तिचित्रों के साथ सचित्र वस्त्रपटों का भी प्राचीन कथाग्रन्थोंमें बहुशः उल्लेख आता है । विशेषतः अभिलपित पूर्वजन्म संबन्धित वरकी प्राप्तिके प्रसंग में कन्या अपने पूर्व जन्मके वृतान्तको वस्त्रपट पर चित्रित करवाके सखियोंके द्वारा प्रदर्शित करवाती थी । तदंकित भावों को परिलक्षित कर ठीक समाधान कर देने पर उपलक्षित वरकी प्राप्ति हो जाती । रूपवती कन्याओंके चित्र राजा - राजकुमार आदिको बताये जाते और उससे प्रभावित होकर वैवाहिक सम्बन्धी स्थिरता आदि प्रयासोंका वर्णन भी अनेक कथाओं में मिलता है । इससे भित्तिचित्रोंके साथ ही चित्रपटोंकी प्राचीनताका भी पता लगता है । कालचक्रकी परिवर्तन शीलता से नवीन वस्तु पुरातनमें परिणत हो क्रमशः विलुप्त होती जाती है। आजका बालक थोड़े वर्षोंमें वृद्ध हो कालकवलित हो जाता है, इसी तरह जगत् के अन्य पदार्थ भी परिवर्तित होकर विनाश और उत्पत्तिके चक्रमें चकित होते रहते हैं । प्राचीन भित्तिचित्रों एवं पट (वस्त्र) चित्रोंका अस्तित्व न रहना भी उसी कालका प्रभाव है। प्राचीन चित्रकला के कुछ परवर्त्ती नमूने गुहाचित्रोंके रूपमें ही आज हमें देखने को मिलते हैं। वस्त्र तो बहुत जल्दी ही जीर्णशीर्ण हो जाते हैं इसलिए प्राप्त चित्रपटोंकी प्राचीनता ६०० वर्षोंकी ही समझिये । उपलब्ध वस्त्रपटोंमें हमारे संग्रहका तरुणप्रभसूरि और पार्श्वनाथका चित्रपट संभवतः सर्व प्राचीन है जिसका निर्माण सं. १४०० के आसपास में हुआ था । इसका फोटो एवं कुछ विवरण उत्तरप्रदेश के जर्नल में प्रकाशित हो चुका है। इसी समयके लगभग की वस्त्र पर लिखी एक धर्मविधि प्रकरण व कच्छुली रासकी प्रति प्राणके फोफलिया वाड़े के ज्ञानभंडारमें सुरक्षित है, जिसके प्रथम पृष्ठ में सरस्वतीका चित्र भी है । पन्द्रहवीं शतीके एक अन्य जैन चित्रपटकी प्रतिकृति सन् १९९३ के दि जर्नल ऑफ इण्डियन आर्ट एन्ड इण्डस्ट्री के पृ. १२७में अमरीका के बोस्टन म्यूजियम के हिन्द कलाविभाग के क्यूरेटर डा. आणंदकुमारस्वामीके जैन आर्ट नामक निबन्धमें प्लेट नं. १२ चित्र नं. ५७में 3 For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28