Book Title: Jain_Satyaprakash 1945 09
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad
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२८४ ] શ્રી જૈન સત્ય પ્રકાશ
वर्ष १० उपरोक्त जैन गुरुओंके अतिरिक्त निम्न जैन गुरुओं का भी सम्राट पर प्रभाव पडा थाः
(१) पद्मसुन्दर-ये तपागच्छ के थे । इनका एक उत्तम ग्रन्थ 'अकबरशाही श्रृंगार दर्पण' हाल ही में 'गंगा आरियेन्टल सोरीझ' बीकानेरसे प्रकाशित हुआ है । इन्होंने सम्राट अकबरको अपना विशाल संग्रह दिया था, जिसे सम्राटने इनकी मृत्युके उपरान्त हीरविजयसूरिको सोंप दिया। इस बातका उल्लेख ऊपर किया जा चुका है। इन्होंने काशीके एक ब्राह्मण पंडितको भी शास्त्रार्थमें पराजित किया था।
(२) नंदविजय-ये विजयक्षेमसूरिके शिष्य थे। इनको सम्राटने 'खुशफहम' नामक उपाधि प्रदान की थी। इस बातका उल्लेख 'भानुचन्द्रचरित्र' तथा 'विजयप्रशस्ति' काव्यमें है । जब विजयसेनसूरिने लाहौरसे प्रस्थान किया, तब उहोंने सम्राट अकबरके पास रखा था।
(३) समयसुन्दर-ये युगप्रधान जिनचन्द्रसूरिके प्रसिद्ध विद्वान शिष्य थे। इन्होंने सम्नाट अकबरके समक्ष अपना 'अष्टलक्ष्यी' नामका ग्रन्थ पढा, जिसमें " राजानो ददते सौख्यम् " इस पदके आठ लाख से अधिक अर्थ किए गए थे। जब सम्राटने जिनचन्द्रसूरिको युगप्रधानकी उपाधि प्रदान की तब इन्हें तथा गुणविनयको 'उपाध्याय ' पद दिया गया।
(४) हर्षसार-ये खरतरगच्छके थे। इन्होंने भी सम्राट अकबरसे भेंट की थी।
(५) जयसोभ-ये भी खरतर गच्छीय थे। इन्हें 'पाठक' उपाधि मिली थी। इन्होंने सम्नाट अकबरकी राजसभामें एक शास्त्रर्थमें विजय प्राप्त की थी।
(६) साधुकीति-इन्होंने भी सम्राट अकबरकी राजसभा शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त की थी, जिससे प्रसन्न होकर सम्राटने इन्हें “वादीन्द्र "की उपाधि प्रदान की थी । __ऊपर जो कुछ लिखा जा चुका है, उससे स्पष्ट प्रतीत होता है कि सम्राट अकबर पर जैन गुरुओंका बहुत गहरा प्रभाव पडा था । जैन गुरुओं के प्रभावसे ही सम्राटने मांसाहारका परित्याग और समग्र साम्नाज्यमें लगभग छः मास पर्यन्त जीव-हिंसाका निषेध किया था । पिनहिरो नामक पोर्चुगीज पादरीने (जो सम्राट अकबरका समकालीन था) तो यहँ। तक लिखा है कि सन्नाट अकबर व्रती-धर्म (जैनधर्म)का अनुयायी था । डॉ. विन्सेन्ट स्मिथ, डॉ. ईश्वरीप्रसाद आदि आधुनिक इतिहासकारोंने भी यह बात मुक्त कंठसे स्वीकार की हे कि जैन गुरुओंका सम्राट अकबर पर अत्यधिक प्रभाव पड़ा था।
तत्कालीन विशाल ग्रन्थ-संग्रह एवं अनुपम कलाकौशलप्रपूर्ण देवालय तथा नाना प्रकारके फर्मान, शिलालेख आदि इस बातको पूर्ण रूपसे पुष्टि करते हैं। खेद है कि इस दिशामें अभी तक पूर्ण प्रयत्न नहीं किया गया है । आशा है विद्वानों का ध्यान शीघ्र ही इस ओर आकृष्ट होगा और इस विषय पर विशेष प्रकाश पडेगा ।
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