Book Title: Jain_Satyaprakash 1945 09
Author(s): Jaindharm Satyaprakash Samiti - Ahmedabad
Publisher: Jaindharm Satyaprakash Samiti Ahmedabad

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Page 23
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir म १२ ] સમ્રાટ અકબર ઔર જૈન ગુરુ [ २८३ (५) विजयसेनसूरि-ये हीरविजयसूरिके प्रधान शिष्य थे । सम्राटने इनकी प्रशंसा सुनकर इन्हें लाहौरसे आमंत्रित किया था । चातुर्मास समाप्त होने पर इन्होंने राधनपुरसे प्रयाण किया और लगभग छ मास पश्चात् ये लाहौर पहुँचे । इनके शिष्य नंदविजयने अष्टावधानका साधन किया, जिससे प्रसन्न होकर सम्राटने उन्हें 'खुशफहम 'की उपाधि प्रदान की। इनका भी सम्राट पर अमित प्रभाव पड़ा था। इससे कुछ ईर्ष्यालु व्यक्तियोंने सम्राटको बहकाना शुरू किया कि जैन लोग नास्तिक होते हैं । जब सम्राटने इस बातकी चर्चा सूरिजीके समक्ष की तो सूरिजीने सम्राटसे कहा कि इस बातका निर्णय करनेके लिये आपकी अध्यक्षतामें विद्वानोंको सभा बुलाई जानी चाहिए । सूरिजीको इच्छानुसार सम्राटने विद्वानोंकी सभा आमंत्रित को । उसमें सूरिजीने अपनी अकाट्य युक्तियों तथा अनुपम तर्क शैलीसे जैनियोंकी आस्तिकता सिद्ध की, जिससे समग्र विपक्षी निरुत्तर हो गए । सम्राट अकबरने सूरिजीके सदुपदेशसे अपने राज्य भरमें गाय, बैल, भेंस और भैसोंका वध निषिद्ध करवा दिया । लावारिस लोगोंकी जायदाद जब्त करने तथा मनुष्यों को बंधनमें रखने की प्रथाएं भी सम्राटने सूरिजीके कहनेसे बंद करवा दी। इन्हें सम्राटने 'सवाई हीरविजयसूरि'को उपाधि प्रदान की थी। लाहौरमें दो चातुर्मास करके इन्होंने गुजरातके लिये प्रस्थान किया। इनके विशेष वर्णनके लिये ' विजयदेवसूरिमाहात्म्यम् ' आदि ग्रन्थोंका अनुशीलन करना चाहिये । उपर्युक्त पाँचो महानुभाव तपागच्छीय जैन साधु थे । इनके अतिरिक्त खरतरगच्छके जिनचन्द्रसूरि एवं जिनसिंहसूरिका भी सम्राट अकबर पर गहरा प्रभाव पडा था । जिनचन्द्रसरि तथा जिनसिंहमूरि-सन् १५९१ में जब सम्राट अकबर लाहौरमें थे तब उन्होंने जिनचन्द्रसूरिकी प्रशंसा सुनकर मंत्री कर्मचन्द्रसे उनका वृत्तान्त पूछा। फिर सम्राटने सूरिजीको आमंत्रित करनेके लिये फर्मान भेजा । सूरिजीको खंभातमें फर्मान मिला। उन्होंने तुरन्त ही वहासे प्रस्थान किया और लाहौरमें सम्राटसे मिले । मंत्री कर्मचंद्र उनके साथ था । सूरि जीके दर्शन कर सम्राटको अतीव प्रसन्नता हुई । सूरिजीने सम्राटके अनुरोधसे लाहौरमें ही चातुर्मास किया । सूरिजीके उपदेशसे सम्राटने जैन तीर्थों तथा मंदिरोंकी रक्षाके लिये फर्मान जारी किये तथा आषाढ शुक्ला ९ से शुक्ला १५ तक जीवहिंसाका निषेध किया। सम्राटने इन्हें 'युगप्रधान' तथा इनके शिष्य मानसिंहको 'आचार्य की उपाधियाँ प्रदान की। मानसिंहका नाम 'जिनसिंहसूरि' रखा गया। सम्राट अकबर जिनसिंह सूरिको अपने साथ काश्मीर भी ले गये थे। इन्होंने सम्राटको उपदेश देकर अनेक स्थानोंमें जीवहिंसा बंद करवाई। इन दोनों जैनाचार्योका वृत्तांत जानने के लिये श्री अगरचन्द्रजी तथा भंवरलालजी नाहटा द्वारा लिखित “युगप्रधान श्री जिनचन्द्रसूरि" ग्रन्थका अवलोकन करना चाहिये। For Private And Personal Use Only

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