Book Title: Jain Ratnasara Author(s): Suryamalla Yati Publisher: Motilalji Shishya of Jinratnasuriji View full book textPage 7
________________ नगगी शत्रु के विजेता, अच्छ नान वालं, प्रधान प्रातिहार्य आदियों से युक्त, शंकाओं को दूर करने वाले अरिहन्तों का हमलोग हमेशा ध्यान करते है । शरीरधारी होने हुए भी-शारीरिक, याचनिक, मानसिक, सभी क्रियाओं को करते हुए भी आत्मा पान, चारित्र आदि गुणों का--आध्यात्मिक शक्तियों का पूरा-पूरा विकास कर चुके हों, वे ही अन्ति । ___आत्यन्तिक मुन्ध साधनान सिद्धः, जिसने चरम सुख की प्राप्ति कर ली है, वह सिद्ध है। जेन शारों उन सिद्धों का लक्षण इस प्रकार कहा गया है : "दुइट्ट कम्मा वर गप्पमुक्के अणंत णाणाइ सिरी चउपके। समन्ग लोगग्ग पयप्पसिद्धे झाएह णिचंपि समत्त सिद्धे ॥" अर्थात दुष्ट अष्टकर्म रूप आवरण से रहित अनन्तनानादि चतुष्टय से समन्यित समस्त लोक पं. अन भाग में अवस्थित समस्त सिद्धों का हमलोग हमेशा ध्यान करते है। अरिहन्त की तरह सर्व शामिमान . पर शरीर त्यागी हां, ये सिद्ध है। यद्यपि अष्ट कर्मों के विनाश से अरिहन्त की अपेक्षा सिद्ध, श्रेष्ठ, फिर भी च्यावहारिक दृष्टि से--परोक्ष स्वरूप वाले सिद्धों की सत्ता को बतलाने की हैसियत में- जैनधर्म के प्रचारक होने के विचार से अरिहन्त ही पहिले नमस्कार के योग्य है। ये दोनों सब के पूज्य , पूजक नही। ___आचार ग्राहयति, आचारयति शिप्यम् , आचिनात्यर्थान् , बुद्धिम् . आचारान् चेति आचार्यः । अर्थात् जो आचारों की शिक्षा दे या मोक्ष साधन का चुनाव कर अथवा निर्वाण साधिका बुद्धि का सम्पान फरे अथवा स्वयं धर्म पालन करने के लिये आचारों का चयन करें. वह आचार्य है। लक्षण इस पंचिदिअ संवरणो तह णव विह बंभवेर गुत्ति धरो। चविष्ट फसाय मुफो इय अट्ठारस गुणेहि संजुत्तो।। पंच माध्यय जुत्तो पंच बिहायार पालण समत्थो। पंच नमिओ तिगुत्तो छत्तीस गुणो गुरु मज्म ।।'Page Navigation
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