Book Title: Jain Ratnasara
Author(s): Suryamalla Yati
Publisher: Motilalji Shishya of Jinratnasuriji

View full book text
Previous | Next

Page 5
________________ प्रस्तावना थों तो प्रत्येक प्राणी का दैनिक काम है कि वह अपने पञ्च भौतिक शरीर को कायम रखने के लिये भोजन किया करता है, पर मनुष्य जाति का तो परम कर्तव्य है कि वह शरीर निर्वाहक भोजन के साथसाथ आत्मा के समुन्नायक ज्ञान रूप भोजन का भी सम्पादन किया करें। जिस तरह भोजन की प्राप्ति से शरीर वलवान कार्यक्षम रहता है, उसी तरह आत्मा को खुराक पहुंचाने में वह समुन्नत -- नागरुक-अपने आपको पहचानने में समर्थ होता है। फलतः मनुष्य जन्म सार्थक मूल्यवान् होता है, अगर ऐसा नहीं हुआ तो पशुओं की तरह जीवन गुजारते हुए अपने सुदुर्लभ मौके को खो कर मनुष्य आखिर पश्चात्ताप के गहरे गर्त में गिर जाते हैं। किसी ने सच कहा है : आहार निद्रा भय मैथुनञ्च, सामान्य मेतत्पशुभिर्नराणाम् । ज्ञानंहि तेपा मधिकं विशेषम्, जानेन हीनाः पशुभिः समानाः॥ अर्थात भोजन, निद्रा भय, मैधन इत्यादि नैसर्गिक (रोजाना) कामों को जैसे मनुष्य किया करते है, वैसे ही पशु भी । इन सब कामों में मनुष्यों और पशुओं में कुछ फर्क नहीं है, फर्क केवल होता है, जान मे ; जान मनुष्यों को होता है, पशुओं को नहीं। अगर मनुष्यों को ज्ञान न हो सका तो पशु तुल्य ही है। पर मच पूछा जाय तो नान हीन मनुष्य पशुओं से भी समता के लायक नहीं है। एक गाय को लीजिये. वह अमृतोपम दृध बिना किसी स्वार्थ के मनुष्यों को दिया करती है ; उसके बच्चे । बैल ) पनी के काम कर देते है ; उन्हें हमलोग गाड़ी में जोत कर सवारी करते हैं-सामग्रियां ढोते हैं। भन्दा बतलाइये, उनका क्या स्वार्थ है ? पर ज्ञान होन मनुष्य अपने स्वार्थ माधन के लिये एक दूसरे का गला घोंटने में भी नहीं हिचकते। "मृतुकाल मे ही भार्या से सहवास करना चाहिये' मनुष्यों के लिये सी ना नन शास्त्रों की आज्ञा जहां पुस्तकों की टोकरियों में पड़ी सड़ती है, वहां पशु जाति ठीक उसी मानि उसका पालन किया करती है. जिस तरह कि शास्त्रों ने मानव जाति के लिये आना दी है। फिर बनला. मनुष्यों को पशुओं से समता केसी ? अस्तु मनुष्यों का कर्तव्य है कि वे ज्ञानवान बनें-वियेकवान् बनं नाकि स्वधर्म को निभा सके। अगर म्यधर्म का पालन नहीं किया जाता है तो कोई कारण नहीं है कि कल्याण की प्राप्ति की जा सके। धम एव हुनो हन्ति. धर्मो रक्षति रक्षिनः" धर्म अगर हम (नष्ट होता है-पालित नहीं होता है तो वह मनुष्य के लिये लाभप्रद नहीं है और धर्म शक्षिनागनानी की इन् बनाना है। धियनं उदिनयन संगार मागरदनेति धर्मः जिम बटौलत मंगानगर में हार मानध: और एम धम का पालन करना मनुष्यों का एकान्त कनन्य । मानिामिक जगायाजना है. पर रचि वैविध्य में मंय की प्रामि के लिये माधन TH - मानना sim-विभिन्न . यही कारण है किधर भी अनेक नामों में अभिदिन हुआ ...कि मुस्लिम त्यादि। इन धमों में हमाग जैन धर्म एफ म्यास मान्यवर्ग मारिगर माना (पर) और पयांत साधन बना।। या निश्चिन तथ्य है, कामना करना ?-दोन अनुदान परता. याबाट नेपा नगना :---

Loading...

Page Navigation
1 ... 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 ... 765