Book Title: Jain Ratnasara
Author(s): Suryamalla Yati
Publisher: Motilalji Shishya of Jinratnasuriji

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Page 10
________________ [ च प्रतिक्रमण है । अतएव त्याज्य है। अगर कोई एक ढ़के अपराध करके उसकी माफी मांगता है तो वह क्षम्य है, पर यदि वह बार बार वही अपराध करता है तो वह क्षम्य नहीं हो सकता। दूसरा भाव प्रतिक्रमण हैं, जो निश्छल निष्कपट है, अतएव वही ग्राह्य है । धर्म के लिये एकाग्र चित्त से शरीर की ममता का परित्याग करने का नाम कायोत्सर्ग है । कायोत्सर्ग को सफल बनाने के लिये घोटक आदि उन्नीस दोषों का बहिष्कार करना निहायत जरूरी है। कायोत्सर्ग से शरीर का निकम्मापन, बुद्धि कामान्थ, मेधा शक्ति की जड़ता चली जाती है। विचार शक्ति मे तरक्की, सुख दुःख में तितिक्षा भावना और ध्यान मे दृढ़ता एवं अतिचार के चिन्तन में असलियत आती है । कायोत्सर्ग में श्वासोश्वास का काल उतना माना गया है, जितना कि श्लोक के एक चरण के मे लगता है । उच्चारण प्रत्याख्यान आवश्यक क्रिया का छट्ठा विभाग है । प्रत्याख्यान का अर्थ त्याग होता है, द्रव्य और भाव इन दोनों का त्याग ही प्रत्याख्यान से सम्बन्ध रखता है । अनाज, कपड़े, रुपये वगैरह सांसारिक पदार्थ द्रव्य है. अज्ञान. असंयम प्रभृति त्याग करने योग्य भाव हैं। अज्ञानादि भावों को छोड़ कर हो जो द्रव्य त्याग किया जाता है और वह भाव त्याग के लिये ही किया जाता है. वही सच्चा प्रत्याख्यान है। शुद्ध प्रत्याख्यान सम्पादन करने के लिये श्रद्धान ज्ञान, वन्दन, अनुपालन, अनुभाषण और भाव है। शुद्धियों की निहायत जरूरी है । प्रत्याख्यान करने से अनेक गुणों की प्राप्ति होती है, अतएव प्रत्याख्यान का दूसरा नाम गुण धारण भी है। प्रत्याख्यान से तंवर होता है, संवर से तृष्णा नाशः तृष्णा के नाश से विलक्षण समता, समता से क्रमशः मोक्ष मिल जाता है । यहां एक बात और ध्यान पर लाने की है कि जहां प्राचीन- परम्परा प्रतिक्रमण शब्द का व्यवहार केवल चौघे आवश्यक के लिये करती थी, वहां अर्वाचीन परम्परा छहों आवश्यकों के लिये व्यवहार करती है और यह व्यवहार खूब वद्ध मूल हो गया है । यह उपर्युक्त आवश्यक क्रिया साधु और श्रावक दोनों को करने का शास्त्रीय अधिकार है, क्योंकि लिखा है : "समणेण सावएण य आवस्सकायन्त्र चं हवइ जम्हा । अंत अहोणिसस्त य तम्हा आवस्त यं णाम ॥" अर्थात् सायंकालीन और प्रातःकालीन 'आवश्यक' श्रमण और श्रावक दोनों का अवश्य कर्त्तव्य है । इसी आवश्यक क्रिया का वर्णन प्रस्तुत ग्रन्थ से नौ विभागों मे किया गया है । विधि विभाग । (३) पूजा विभाग । ४) आरती विभाग । (५) चैत्यचन्दन विभाग । (७) स्तुति विभाग । (८) रासतथा सम्भाय विभाग और (2) स्तोत्र विभाग | (१) सूत्र विभाग । (२) विभाग । (६) स्तवन इसके अलावे परिशिष्ट है । परिशिष्ट मे स्याद्वाद, समभंगी, सप्तनय, चार निक्षेप, मूत्तिवाद, मूर्ति पूजा. ईश्वर कर्तृत्त्व, जैनधर्म. आत्मनिन्दा, बारहमासी पर्व. वारहमासी पर्व में तीर्थंकरोंके तथा दादा जी के जीवन चरित्र संक्षेप से है । इसके अलावा ८४ रनों के नाम उनके वर्ण और फल संक्षेप से मुहुर्तादि विषय भी दे दिये गये है. जो कि प्रत्येक आदमी के लिये उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं। यद्यपि उपर्युक्त 'आवश्यक क्रिया को प्रतिपाद्य विषय बना कर रत्नसागर ( उपाध्याय श्री जयचन्द्र जी संगृहीन ) रत्न समुचय ( महोमहापाध्याय श्री रामलालजी गणि संगृहीत ) अभयरत्रसार ( श्री शहर दानजी शुभकरणजी नाहटा संग्रहीत ) पच प्रतिक्रमण (पं० श्री सुबलालजी संगृहीत) प्रतिक्रमण सुत्र सचित्र ( पं० श्री काशीनाथ जी संग्रहीत ) इत्यादि बहुत से ग्रन्थ निकल चुके है, फिर भी प्रस्तुत ग्रन्थ मे

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