Book Title: Jain Ratnasara
Author(s): Suryamalla Yati
Publisher: Motilalji Shishya of Jinratnasuriji

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Page 11
________________ [ छ ] किसी न किसी रूप में खास विशेषताएं हैं और वे काम की हैं। जहां कई पुस्तकों में प्राचीन हिन्दी का उपयोग हुआ है, फलतः पाठको को कुछ असुविधा होती थी, इस पुस्तक में सामयिक हिन्दी का सनिवेश हुआ है। जगह-जगह पर आवश्यक टिप्पणिओं एवं कथाओं का उल्लेख भी किया गया है जो कि बड़ा ही उपयोगी तथा मनोरञ्जक सिद्ध होगा । किस सन् सम्वत् में ? किसके द्वारा अमुकवस्तु क्यों बनायी गयी । इत्यादि बातों का भी स्पष्टी करण यथा स्थान किया गया है, जो कि पाठकों के लिये रुचिकर प्रतीत होगा । अतिचारों में स्वपुरुष सन्तोष पर पुरुष गमन विरमण व्रत स्त्रियों के लिये विशेषतया लिखा गया है, जो किसी ने आज तक अपने ग्रन्थ में नहीं लिखा था । और पोसह सज्झाय अर्थ सहित लिखी गयी है जो अद्यावधि किसी भी पुस्तक में उपलब्ध नहीं है। पूजा विभाग में शासनपति तथा रंग विजय खरतरगच्छीय जं० यु० प्र० बृ० भट्टारक श्री पूज्यजी श्री जिनचन्द्र सूरिजी महाराज की बनाई हुई पंचकल्याणक पूजा भी दी गयी है। इसी तरह और भी कई बातें लिखी गई है, जो अपना खास महत्त्व रखती हैं। परिशिष्ट में जैन सिद्धान्तों का बहुत कुछ वर्णन किया गया है। जिससे अनायास सैद्धान्तिक बातों का परिचय प्राप्त होगा । एक बात मैं और बता देना चाहता हूं कि इस पुस्तक में कई स्तोत्र तथा अन्य चीजें दी गई हैं, जिनमें अशुद्धियां जान पड़ती है, मैंने संशोधन करके हू-बहू उसी रूप में लिख दिये है, जिस रूप में कि प्राचीन लिपी में है । इसी तरह और जगहों पर भी परम्परा की रक्षा के लिये कुछ त्रुटियों पर दृष्टिपात नहीं किया है; सुविज्ञ पाठक इसके औचित्य अनौचित्य का विवेचन स्वयं कर लें। इसके अलावे यद्यपि त्रुटियों का संशोधन करने की बहुत चेष्टा की है, फिर भी दृष्टि दोष से अथवा मुद्रण दोषसे अशुद्धियां रह गई होंगी, आशा है, सहृदय स्वयं सुधार कर पढ़ेंगे । यह पुस्तक बहुत पहले ही पाठकों के करकमलों में उपस्थित हुई होती, पर खेद है कि कई विघ्न वाधाओं के द्वारा, सरिता के पथ पर शिला खण्डों की तरह टांग अड़ा देने के फलस्वरूप आशातीत विलम्ब हो गया । एक तो कुकुनू में श्रावकों की पारस्परिक तनातनी - साम्प्रदायिक तनातनी को मिटाने का काम शिर पर आ पड़ा। बाद में शरीर अस्वस्थ रहने लगा। इधर यूरोपीय विकराल रणचण्डी को बुभुक्षा शान्त करने में व्यस्त कल-कारखानों के कारण कागजों की महंगी भी सामने नग्न नृत्य करने लगी । फलतः देर होना अवश्यंभावी हो गया । खैर, हर्ष है कि आज भी यह पुस्तक पाठकवृन्द सेवा में "पत्रं पुष्पम्" की भेट लेकर उपस्थित हो रही है। आशा है, सज्जनबृन्द क्षीर नीर विवेक न्याय मेरी गलतियों व त्रुटियों की ओर ध्यान न देकर उपयुक्त विषयोंके नाते पुस्तक को अपना कर मुझे कृतकृत्य करने की अनुकम्पा दिखायेंगे । अन्त मे 'श्री संघ' को धन्यवाद दिये बिना नहीं रह सकता, जिसने पुस्तक प्रकाशन के पहिले ही निःसंकोच आर्थिक सहायता देकर अपनी उन्नत उदारता का परिचय दे मुझे प्रोत्साहन दिया है । साथ ही साथ पंचबुआजी झा, पं० गणेशदत्तजी चौधरी तथा मेरे गुरुभाई मोतीलाल को भी धन्यवाद है. इन लोगों ने इस पुस्तक के प्रकाशन मे विशेष सहयोग दिया है । इत्यल मनल्प जल्पनेन विज्ञेषु | सं० १६६= ज्ञान पञ्चमी । विनीत :जैन गुरु पं० प्र० यति सूर्यमल्ल, कलकत्ता ।

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