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प्रस्तावना
श्रीसौधर्मबृहत्तपागच्छीय आचार्यदेव श्रीमद् विजय. यतीन्द्रसूरीश्वरजी महाराज का विक्रम संवत् २००४ में चातुर्मास थराद (थिरपुर) बनासकांठा, उत्तरगुजरात में था। कार्तिक माह में आपश्री डबल निमोनिया से इतने अधिक पीड़ित हुए कि जीवन की आशा भी नहीं रही। दूर-दर के नगर, ग्राम एवं प्रान्तों से अनेक भक्तगण दर्शमार्थ दौड़े जा रहे थे, मैं भी गया था। स्थिति सुधार पर थी, परन्तु आपको अधिक भाषण करने से तथा आये हुए भक्तजनों को दर्शन तक देने में भी होनेवाले श्रमसे बचने की चिकित्सकों की सम्मति थी। मुझ को दर्शन करने की आज्ञा मिल गई थी । आचार्यदेवने मुझ को कर-सङ्केत से धर्मलाभ देकर चिकित्सक महोदय की ओर देखा। चिकिसक आचार्यदेव की अमिलाषा को समझ गये और मुझ से कुछ क्षण चर्चा करने की सम्मति दे दी। आचार्यदेवने पुस्तकों की एक ग्रन्थी खोली और उसमें रही हुई शिलालेखों के अक्षरान्तर की दो प्रतियाँ देखने को दी। मैंने प्रतियों को सहज दृष्टि से देखीं तो ऐतिहासिक दृष्टि से वे ममल्य प्रतीत हुई। चर्चा के अन्तर में आचार्यदेवने कहा
"Aho Shrut Gyanam"