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भी । उक्त अनुक्रमणिका के बन जाने तथा उसकी तुलना अन्य पुस्तकों की अनुक्रमणिकाओं से कर लेने के पश्चात् अनुवाद का कार्य उठाना अधिक उपयुक्त एवं सुविधाजनक होता है, क्योंकि उस समय तक शिला-लेखों का अनेक समय अवलोकन जैसा अनुक्रमणिका बनाने के कारण बारबार करना पड़ता है, हो गया होता है और लेखों का सुधार एवं संशोधन भी जो इसी कार्य के साथ साथ अनिवार्यतः चलता था समाप्त हो जाता है । अन्य अनुक्रमणिकायें अनुवाद कार्य के पश्चात् बनाई जा सकती हैं। शिला-लेखों का क्रम
आचार्यदेव का चतुर्मास थराद में होना निश्चित हो गया था और खुडाला ( मारवाड़) से आपका विहार एतदर्थ थराद की ओर जुलाई सन् १९४७ में प्रारम्भ हो गया था । जीरापल्ली से लगा कर आपके मार्ग में जितने ग्राम, नगर, पुर पड़े आपने अधिकांश मन्दिरों के और प्रतिमाओं के लेख उतारे, जिनका उतारना सुविधा, अवसर से बन सका। जैनप्रतिमा-लेखसंग्रह का निमित्त कारण थराद में चतुर्मास का निश्चित होना है तथा स्वयं थराद के २७३ दोसौ तिहत्तर धातुप्रतिमा एवं पाषाणप्रतिमा लेख हैं। इन दो कारणों से इस पुस्सक में अधिक प्रमुखता थराद की है। अतः लेखों का क्रम थराद के लेखों से ही प्रारम्भ किया
"Aho Shrut Gyanam"