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है। थराद के लेखों के पश्चात् जीरापल्ली (जिरावला) तीर्थ से मार्ग में आये हुए गांवों के लेखों का अक्षरान्तर क्रम से दिया है । जैनघरों की तथा मन्दिरों की संख्या तो आपने अपने मार्ग में आये प्रत्येक ग्राम, नगर की ली है जो अलग विहार-दिग्दर्शन शीर्षक से लिखी गई है।
अनुवाद
१. भले कोई समझे कि अनुवाद में अधिक श्रम नहीं पडता है, क्योंकि आदर्श और आधार सामने होते हैं । लेकिन अनुवाद एक ऐसा निश्चित, सीमित निर्दिष्ट पंथ है कि जिसमें होकर सफलता पूर्वक पार हो जाना भाग्यशाली का कर्म है। यतीन्द्र जैनलेखसंग्रह के लेखों की रचना प्रायः अधिकतर एक-सी मिलती हुई होने पर वाक्य-विन्यास इतना शिथिल है कि अभीष्ट की प्राप्रि में उलझन पड़ जाती है। सर्व से अधिक जो द्विधा रहती है, वह है लेख के न्यास करनेवाले को शोधने की। अनेक लेखों से पता ही नहीं चलता कि प्रतिमा का करानेवाला कौन व्यक्ति है ?, जैसे देखिये 'धरणा पुत्र वेला भार्या विमलादे पुत्र खेमा, गेला, गजादिनि०' प्रतिमा करानेवाला धरणा है या वेला ? 'धरणापुत्र वेला' इस प्रकार के लेखन से तया धरणा की स्त्री का नामोल्लेख भी नहीं होने से तथा वेला तीन या अधिक लडकों का पिता है से यही धनि निकलती है कि
"Aho Shrut Gyanam"