Book Title: Jain Prakrit Sanskrit Prayogoni Pagdandie
Author(s): H C Bhayani
Publisher: ZZ_Anusandhan

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Page 3
________________ 'दोधकवृत्ति मां आच्छाद्यते (= ढांकी रखाय) स्थाप्यते (= राखी मुकाय) एवो अर्थ कर्यो छे. वैद्ये अने में पण ते अनुसरण कर्तुं छे. पिशेले दाटी देवाय' एवो जे अर्थ कर्यो छे, तेनी टीका करता आल्स्डोर्फे सूचव्युं छे के राखी मूकवामां आवे ( एटले के 'दाटी देवामां न (आवे ) तो शरीर सडी जाय - एवो अर्थ ज बंध बेसे. व्यासे आनी नोंध लीधी छे. योगीन्दुदेवना परमप्पपयास मां आ दोहानुं रूपांतर नीचे प्रमाणे मळे छे : = बलि कि माणुस - जम्मडा, देक्खंतहं पर सारु । जइ उट्ठब्भइ तो कुहड़, अह डज्झइ तो छारु ॥ उत्तरार्ध उपरना दोहा साधे समान छे. पूर्वार्ध थोडोक जुदो छे, पण सडवानी के राख थवानी वात मनुष्यशरीरने लागु पडे तेम मनुष्य जन्मने सीधी लागु न पडी शके - एटले उपरना सुसंगत अर्थ वाळा दोहाने आ कांईक नवळं रूपांतर जणाय छे. अहीं ब्रह्मदेवनी संस्कृत वृत्तिमां उद्यब्भड़नी अवष्टभ्यते एवी छाया आपीने भूमौ निक्षिप्यते एवो अर्थ कर्यो छे. परंतु उट्ठब्भ - नो राखी मुकवु, पड्युं रहेवा देवु के 'दाटी देवु एवा अर्थनो कोई अन्य प्रयोग नोंधायो नथी. हकीकते उभइ पाठ भ्रष्ट छे. तेने बदले उदुब्भइ जोईए. सं., स्तुभ् उपरथी थयेला छुभ् नो अर्थ बहार फगावी देवु एवो थाय छे. पालि निछुभति, निट्ट्ठहइ नो अर्थ गळं खखारीने थुंकी काढवु एवो छे. धातुपाठमां स्तुभ्य् धातु निष्कासन ना अर्थमा आप्यो छे. प्राकृत उट्टुभ् नो पण एवो अर्थ छे. पण प्रा. उच्छूढ ( उट्ठभ् नं भूतकृदंत ) नी त्यक्त, निष्कासित, उज्झित एवो अर्थ पासम. मां आप्यो छे अने प्रयोगनां उदाहरण तरीके उच्छूढसरीर-धरा आपेल छे. आ संदर्भमा शरीरने संस्कारथी - परिकर्मथी वंचित राखवुं, साफसूफी अने सजावट प्रत्ये उपेक्षा सेववी एवो अर्थ छे. पण उपर्युक्त बधा संदर्भों जोता 'नाखो देव, ‘उपेक्षाभावे एमने एम पड्युं रहेवा देवं एवो अर्थ सहेजे लई शकाशे, अने ते हेमचंद्राचार्ये उद्धृत करेल दोहा माटे बंधबेसतो थाय छे, एटले पाठ उट्ठब्भड़ नहीं, पण उट्ठब्भइ होवो जोईए. (पू) दे. साइतकार विश्वस्त, सप्रत्यय' हरिभद्रसूरिनी आवश्यक - वृत्ति मां साइतंकार (२, पृ. १४२ ) अने पिंडनिर्युक्तिभाष्यं मां साइयंकार (३३मां) विश्वस्त', 'सप्रत्यय एवा अर्थमां वपरायो होवानुं 'देशी शब्दकोश मां नोध्युं छे अने ते माटे नीचे प्रमाणे उद्धरणो आपेल छे : (१) जं च राएण उल्लवियं साइतकारो तेण तं पत्तए लिहिये । (२) पुच्छा समणे कहणं साइयंकार - सुमिणाई । [ १६ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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