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जैन प्राकृत-संस्कृत प्रयोगोनी पगदंडीए
- हरिवल्लभ भायाणी
१. शब्दप्रयोगो (१) सं. चेलक्नोपम्, (२) प्रा. पाणद्धि, (३) दे. मोरउल्ला, (४) प्रा. उट्ठन्म के उटठुब्भ् ? (५) दे. साइतंकार, (६) गुज. चणव, हिं. चुगना.
(१) सं. चेलक्नोपम् कपडां तरबोळ बनी जाय तेटो (वरसवं)
हेमचंद्राचार्यना योगशास्त्र मां योग द्वारा केवलज्ञाननी प्राप्ति थती होवाना संदर्भे वृत्तिमा आपेली भरत चक्रवर्तीनी दृष्टांतकथामां ऋषभदेवना विवाहवर्णनमा, देवगण सहित इंद विवाह माटेनी जे विविध तैयारी करे छे तेमां विवाहमंडपना द्वारे वादळाए जळ वरसाव्यानो निर्देश नीचे प्रमाणे छ :
ववषर्मण्डप-द्वारे चेलक्नोपं पयोमुचः । (योगशास्त्र', १-१०; वृत्ति-श्लोक १,७६.) मंडपना द्वार पासे वादळो कपडा तरबोळ बनी जाय तेटलुं वरस्या.'
सं, क्नय धात भीनं थव (उन्दन) अर्थमा नोंधायो छे. (पाणिनीय धातुपाठ, १४, १४, हैम धातपाठ, (०२), तेना प्रेरक अंग क्नोपय् (अष्टाध्यायी --- ७-३-३६, ८६) परथी अम् - प्रत्ययवाळ संबंधक भूतकृदंतनुं रूप क्नोपम्, ज्यारे वस्त्रवाचक पद साथे समस्त थईने वपराय छे, त्यारे ते केटला मोटा प्रमाणमा वरसाद पड्यो ते सूचवे छे. जेम के चेलक्नोपं । वस्त्रक्नोपं । वसनक्नोपं वृष्टो देवः / मेघः ('अष्टाध्यायी - ३-४-३३ उपरनी वृत्तिमा; सिद्धहेम परनी लघवृत्तिमां).
___ शिशुपालवध मां वस्त्रक्नोपम् नो प्रयोग थयो छे. पण संस्कृतसाहित्यमाथी चलक्नोपम्नो कोई प्रयोग नोंधायो नथी. वैयाकरण हेमचंदाचार्ये करेला तेना प्रयोगने बीजा कोई प्रयोग ध्यानमा न आवे त्यां सुधी अनन्य गणवानो रहेशे.
१. चेलार्थेषु कर्मसूपपदेषु क्नोपेर्णमल स्याद् वर्षप्रमाणे । यथा वर्षणेन चेलानि क्नोप्यन्ते तथा वृष्ट इति चेलक्मोपं वृष्टः ॥ तथा चेलार्थाट् व्याप्यात् परात् क्नोपयतेस्तुभ्यकर्तृकार्थाट् वृष्टिमाने गम्ये धातोः सम्बन्धे णम् वा स्यात् ॥
२. उपयुक्त संदर्भ :- संस्कृत अंग्रेजी कोश. मोनिअर विलिअम्झ. धातुरूपकोश, धर्मराज नारायण गांधी. योगशास्त्रा. संपादक, मनि जंवूविजयजी.
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(२) प्रा. पाणद्धि शेरी', 'गली.
हेमचन्द्राचार्यकृत 'देशीनाममाला मां ( ६-३९) पाणद्धि शब्द रथ्याना अर्थमा आपेलो छे. प्राकृतकोशमां तेनो साहित्यमा थयेलो कोई प्रयोग नोंधायो नथी. पण भोजकृत सरस्वती - कंटाभरण ं (पृ. ६३५) अने 'शृंगारप्रकाश' (पृ. ७९०, ११९७) मां टांकेली नीचेनी उदाहरणगाथामा तेनो प्रयोग मळे छं. (जुओ, वी. एम. कुलकर्णी, ग्रंथ - १, पृ. १६० (क्रमांक ५९२ ), ग्रंथ २, पृ. ६५, ८०५.).
हो कण्णुलीणा भणामि रे किंपि सुहअ मा तूर । णिज्जण पाणद्धी संकडम्मि पुण्णेहि लद्धो सि ॥
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'अरे सुभग, जवानी उतावळ न कर. मारे तने कांईक कानमां कहेवुं छे. आगला भवनां पुण्ये तु सांकडी निर्जन गलीमा भेगो थयो छे. *
(३) दे. मोरउल्ला 'व्यर्थ
सिहे. ८ - २ - २१४ मा मोरउल्ला क्रियाविशेषण मुधा निरर्थक, नकामं एवा अर्थमा आप्यो छे. पासम. मां मोरकुल्ला एवं रूप पण नोंध्युं छे, अने तेनो प्रयोग चउपन्न - महापुरिसचरिय', 'कुमारपालचरित ं (मा तम्म मोरउल्ला 'तुं निरर्थक दुःखी न था, ४, २० ) अने सुमतिजिन-चरित्र ं मां थयो होवानं जणाव्युं छे. रत्नप्रभसूरिकृत उपदेशमाला – दोघट्टीवृत्ति (ई.स. ११८२ ) मां पण एनी प्रयोग मळे छे मरेसु मा मोरउल्लाए 'निरर्थक न मर (पृ. ८, पद्म ८७).
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:
* कंठपरंपराना एक वैष्णव धोळनी पंक्तिओ सरखावो :
सांकडी शेरीमां श्री वल्लभ मळ्या, बोल्या कांई वेण- कवेण,
श्री वल्लभ विना घडी नहीं चाले.
(४) उट्ठब्भ्- के उट्ठब्भ्-- ?
सिद्धम ८, ४, ३६५ नीचे ( अपभ्रंश - विभागमां), सं. इदम् नुं स्थान अपभ्रंशमां आय ले छे ते दर्शाक्वा आपेलां त्रण उदाहरणोमां त्रीजुं नीचे प्रमाणे छे
:
आयो दड्ढ - कलेवरहो, जं वाहिउ तं सार ।
जइ उट्ठब्भइ तो कुहइ, अह डज्झइ तो छारु ॥
शरीरनं असारणं दर्शाववा आ दोहामां कह्युं छे के मृत्यु थतां शरीर का तो सडी जाय छे, नहीं तो (जो तेने बाळी मूकवामां आवे तो ) राख थई जाय छे. आमां उट्ठब्भनो ( १ )
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'दोधकवृत्ति मां आच्छाद्यते (= ढांकी रखाय) स्थाप्यते (= राखी मुकाय) एवो अर्थ कर्यो छे. वैद्ये अने में पण ते अनुसरण कर्तुं छे. पिशेले दाटी देवाय' एवो जे अर्थ कर्यो छे, तेनी टीका करता आल्स्डोर्फे सूचव्युं छे के राखी मूकवामां आवे ( एटले के 'दाटी देवामां न (आवे ) तो शरीर सडी जाय - एवो अर्थ ज बंध बेसे. व्यासे आनी नोंध लीधी छे. योगीन्दुदेवना परमप्पपयास मां आ दोहानुं रूपांतर नीचे प्रमाणे मळे छे
:
=
बलि कि माणुस - जम्मडा, देक्खंतहं पर सारु । जइ उट्ठब्भइ तो कुहड़, अह डज्झइ तो छारु ॥
उत्तरार्ध उपरना दोहा साधे समान छे. पूर्वार्ध थोडोक जुदो छे, पण सडवानी के राख थवानी वात मनुष्यशरीरने लागु पडे तेम मनुष्य जन्मने सीधी लागु न पडी शके - एटले उपरना सुसंगत अर्थ वाळा दोहाने आ कांईक नवळं रूपांतर जणाय छे. अहीं ब्रह्मदेवनी संस्कृत वृत्तिमां उद्यब्भड़नी अवष्टभ्यते एवी छाया आपीने भूमौ निक्षिप्यते एवो अर्थ कर्यो छे. परंतु उट्ठब्भ - नो राखी मुकवु, पड्युं रहेवा देवु के 'दाटी देवु एवा अर्थनो कोई अन्य प्रयोग नोंधायो नथी.
हकीकते उभइ पाठ भ्रष्ट छे. तेने बदले उदुब्भइ जोईए. सं., स्तुभ् उपरथी थयेला छुभ् नो अर्थ बहार फगावी देवु एवो थाय छे. पालि निछुभति, निट्ट्ठहइ नो अर्थ गळं खखारीने थुंकी काढवु एवो छे. धातुपाठमां स्तुभ्य् धातु निष्कासन ना अर्थमा आप्यो छे. प्राकृत उट्टुभ् नो पण एवो अर्थ छे. पण प्रा. उच्छूढ ( उट्ठभ् नं भूतकृदंत ) नी त्यक्त, निष्कासित, उज्झित एवो अर्थ पासम. मां आप्यो छे अने प्रयोगनां उदाहरण तरीके उच्छूढसरीर-धरा आपेल छे. आ संदर्भमा शरीरने संस्कारथी - परिकर्मथी वंचित राखवुं, साफसूफी अने सजावट प्रत्ये उपेक्षा सेववी एवो अर्थ छे. पण उपर्युक्त बधा संदर्भों जोता 'नाखो देव, ‘उपेक्षाभावे एमने एम पड्युं रहेवा देवं एवो अर्थ सहेजे लई शकाशे, अने ते हेमचंद्राचार्ये उद्धृत करेल दोहा माटे बंधबेसतो थाय छे, एटले पाठ उट्ठब्भड़ नहीं, पण उट्ठब्भइ होवो जोईए.
(पू) दे. साइतकार विश्वस्त, सप्रत्यय'
हरिभद्रसूरिनी आवश्यक - वृत्ति मां साइतंकार (२, पृ. १४२ ) अने पिंडनिर्युक्तिभाष्यं मां साइयंकार (३३मां) विश्वस्त', 'सप्रत्यय एवा अर्थमां वपरायो होवानुं 'देशी शब्दकोश मां नोध्युं छे अने ते माटे नीचे प्रमाणे उद्धरणो आपेल छे :
(१) जं च राएण उल्लवियं साइतकारो तेण तं पत्तए लिहिये । (२) पुच्छा समणे कहणं साइयंकार - सुमिणाई ।
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आवृ. मां जे शब्दरूप मळे छे ते त्श्रुति वाळु छे. एटले मूळ साइयंकार ज छे. पासम. मां साइयंकार माटे पिंभा. ४२ नो निर्देश छे. अपभ्रंशमां साइड शब्द 'आलिंगन ना अर्थमा वपरायो छे. साइड देइ एटले 'स्नेहीजनने मळतां तेने 'भेटे छे. गुजरातीमा सांई आ ज अर्थमा प्रचलित छे. परगाम रहेता स्वजनने माटे ते गाम जनारने एमने मारा वती सांई देजो' कहेवानो रिवाज छे. कहेवत छे के नहीं संदेशो के नहीं सांई, तमे त्यां ने अमे आंही एटले कुशलप्रश्न, कुशळवार्ता एवो अर्थ विचारणीय हे.
(विगत माटे जुओ रत्ना श्रीयान, Des'ya and Rare Words from Puspadanta's Mahapurana १९६९).
(६) गुज. चणवुं, हिं चुगना
गु. चणवं नो एक अर्थ छे 'चांचथी एक एक दाणों पकड़ी गळी जवानी पक्षीनी क्रिया. चण (स्त्री.) एटले 'पक्षीओने माटं आ सारु नखाता अनाजना दाणा.'
वृ.गु.को. मां एना मूळ तरीके से. चिनोति एकठु करवु, ढगलो करवों, आप्यां छे. प्रा. चिणइनो पण 'फूल वगैरे चूंटीने एकठां करत्रों एवो अर्थ छे.
प्राकृतमां चिणइ उपरांत चुणइ पण मळे छे. हेमचंदे अनियमित रोते एक स्वरनुं स्थान बीजो स्वर लेतो होवानुं गणीने चुणइने चिणइ उपरथी थयेलो मान्यो छे ( सिंहे. ४.२२८). टर्नरे तुन्न जेवाना प्रभावे इ ना उ थयानं सूचव्युं छे (इ लें. '४८१४). अर्थ थोडोक बटलायो छे. काओ लिंबोहलिं चुणड़ ( पासम. ) एवा प्रयोगमा 'चांचथी ठोलीने खानु एत्रो अर्थ छे, जं चणवाना अर्थनी निकट छे. एथी चणवुं ना मूळ तरीके प्रा. चिणड़ नहीं पण चुणइ ज स्वीकारत्रानो रहे.
आनुं समर्थन चौदमी शताब्दी लगभगना एक जैन पुरातन प्रबंधथी मळे छे. (मुनि जिनविजय संपादित पुरातन प्रबंध संग्रह मां G संज्ञक हस्तप्रतमाथी आपेल भोजराजाना वृत्तान्तमां, पृ. २२ उपरनो, परिच्छेद ४१ नीचे आपेलो प्रसंग ). भोजराजानी सवारी नोकळी त्यारे सौ तेने नमस्कार करता हता, पण एक हाटमां उभेला एक माणसे नमस्कार न कर्या. राजाए तेनी सामे जोयुं एटले तेणे त्रण आंगळी ऊंची करीने बतावी. राजाने ए संकेत समजायो नहीं. बीजे दिवसे त्यांथी राजानी सवारी नोकळी त्यारे पेलाए बे आंगळी अने त्रीजे दिवसे एक आगळी ऊंची करीने राजाने बतावी. पछी भोजे तेने बोलावीने संकेतोनो खुलासो पूछयो. एटले ते माणसे कह पहेली वार आपनां दर्शन कर्या त्यारे मारे घरे त्रण दिवसनी चूणि हती, पछी बे दिवसनी, पछी एक दिवसनी राजाने नमस्कार करीने पण शुं ?' अहीं चूणि एटले एटले के पेट पूरतं अनाज एटले भोजे तेने वर्षासन बांधी आप्यु.
'चण'
अहीं चूणि रोज खावाना अनाज माटे लाक्षणिक अर्थमां वपरायो छे. चुणइ उपरथी मध्यकालीन गुजरातीमा थयेला उ अ एवा परिवर्तनने परिणामे चष्णवं थयो. पण अहीं तो
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दीर्घ ऊ वाळो चूणि छे, अने गुजराती कोशोमां पण चूणवुं, चूण एम दीर्घ स्वरवाळां रूप नोंधायां छे. आनो खुलासो मेळववानो रहे छे. चुणि उपरथी चण थाय, चूणि उपरथी चूण.
हिंदी वगेरेमा चणवाना अर्थमा चुगना के चूंगना छे. पंजावीमा चोग्गा एटले चण टर्नर ए धातुओ अने तेमांथी साधित शब्दो माटे मूळ तरीके चुग्यति के चुंगति होवानुं मान्युं छे. ('इलें ४८५२, ४८५३, ४९१९, ४९२०). पण सादृश्यनो आधार लईने ए धातुने अने साधित शब्दांने चुइ साथै जोडी शकाय तेम छे. चिणइ उपरथी कर्मणि चिव्वइ, चिम्पइ अने चिज्जइ थाय छे, ते अनुसार चुणइ उपरथी कर्मणि चुज्जइ. अने पछी जेम प्राकृत भज्जइ, भू. कृ. भग्ग, रज्जइ रग्ग, वज्जइ वग्ग वगेरे तेम चुज्जइ - चुग्ग. अने ए भूतकृदंत परथी धातु चुगना अने नाम चोग्गा बगेर सधाया.
२. छंदचची, पाठचर्चा वगेरे
( १ ). सिहे. ८-४-३३० ना उदाहरणनो पाठ अने छंद
'सिद्धम' ना अपभ्रंश विभागना ३३० मा सूत्र प्रमाणे नामिक विभक्तिना प्रत्यय पूर्वे नामना अंगनो अंत्य स्वर हूस्व होय तो दीर्घ थाय छे, अने दीर्घ होय तो ह्रस्व थाय छे. तेनुं उदाहरणपा नीचे प्रमाणे छे :
ढोल्ला सामला धण चंपावण्णी ।
पाइं सुवण्ण - रेह कसवट्टइ दिणः ।
'नायक शामळो छे, नायिका चंपावणी छं. जाणे के कसोटीना पथ्थर पर सोनानी रेखा
दोग्धकवृत्ति अनुसार अहीं नायक नायिकाना विपरीत रतनी
पड़ी होय (तेवां ते शोभे छे. ) . परिस्थितिनुं वर्णन छे.
अहीं समस्या ए छे के उदाहरणपद्यनो छंद जे रूपे पाठ सचवायो छे ते रूपमा अनियमित छे. एकी चरणोमां को नव मात्रा जोईए, कां तो दस. पण उपर आपेला पाठमां पहला चरणमा नव मात्रा छे, पण त्रीजा चरणमा दस आ बाबत तरफ अपभ्रंश व्याकरणना संपादकी संशोधकोनुं ध्यान नथी गयं.
'पुरातन प्रबंध संग्रह (संपा. जिनविजय मुनि, सिंजैग्र., २, १९३६) नी ई. स. १४ मी शताव्दीनी G हस्तप्रतमां आपेल भोजचरित्रमां एवो प्रसंग छे (पू. २०-२१ परिच्छेद ३६ ) के मालवपति मुंजे ज्योतिषीने पूछतां तेणे जणान्युं के तमने पुत्र थशे नहीं, पण श्रावण सुद पांचमना पहेला प्रहरे जे तमारी समस्या पूरशे ते तमारा पछी राजा थशे. ते दिवसे मुंजे कोईक प्रासादमा रहेला श्याम पति अने गोरी पत्नीने जोयां अने तेने पद्यार्धं स्फुर्यु : दुल्लउ सामलउ धण चंपावन्नी । एनी समस्यापूर्ति बीजा कोईथी न थई शकी, पण भोजे ते करी: छज्ज
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कणयारह कसवट्टइ दिन्नी. आमां वे-त्रण बाबत ध्यानपात्र छे. पहेलुं तो ए के हेमचंद्रना उदाहरणमां ढोल्ला सामला छे त्यारे अहीं छे दुल्लउ (के ढोल्लउ ) सामलउ. अंत्य अनो आ थयानं उदाहरण आपवानं होवाथी हेमचंद्राचार्य समक्ष ढोल्ला सामला एवो पाठ ज होई शके. पण आ प्रकारनां कंठपरंपरामा प्रचलित रहेलां पद्योनो पाठ केटलेक अंशे प्रवाही रहेती. मां शब्दस्वरूपनी पण एकवाक्यता घणी वार नथी जोवा मळती. प्रथमा एकवचन जे बोली- प्रदेशमां अउ प्रत्ययवाळं हतुं ते प्रदेशनो आ पाठ छे.
बीजं कणयारह पाठ भ्रष्ट छे. तेने स्थाने कणय - रेह जोईए. उनी पडिमात्रा य नो कानो बनी गई छे.
त्रीजुं, हेमचंद्रीय उदाहरणना उत्प्रेक्षावाचक णाई ने स्थाने अहीं छज्जइ छे. ए पाठमां, संदर्भथी समजाइ जतुं जे अनुक्त राख्यं छे ते खुल्लुं व्यक्त थयुं छे. एटले एने पाछळनो पाठ गणी शकीए. आम
ढोल्ला सामला (के ढोल्लउ सामलउ), धण चंपावन्नी ।
नाई काय- - रेह, कसवट्टइ दिन्नी ॥
एवा पाठमां छंदनी अशुद्धि रहेती नथी. ९ + १०९ + १० मात्राना मापवाळी आ मलयमारुत नामना छंदनी आंतरसमा चतुष्पदी छे.
'स्वयंभूछंद नुं मलयमारुतनुं उदाहरण :
थया.
गोरी अंगणे, सुप्पती दिट्ठा ।
चंदहो अप्पणी, जोवह वि उव्विट्ठा || (स्वछं० ६
(स्वयंभूछंद मां विडविट्ठा पाठ भ्रष्ट छे.)
'आंगणामां सूतेली गोरीने जोई एटले पछी चंदने पोतानी ज्योत्स्ना पण अबखे पड़ी.. ‘छंदोनुशासन नुं उदाहरण :
४२, ९१ )
देक्खिवि वेल्लडी, मलय- मारुअ-धुआ ।
सुमरिवि गोरडी, पंथिअ-सत्थ मुआ ।। (छंदो० ६- १९, २० )
मलयपवने कंपती वेलडीने जोईने पोतानी गोरी सांभरी आवतां पथिको मरणशरण
'कविदर्पण (१३मी शताब्दी लगभग ) मां आपेलुं मलयमारुतनुं उदाहरण ( 'कोईकनुं छे एका उल्लेख साथे) पण जोईए :
तत्ती सीयली, मेलावा केहा ।
धण उत्तावली, प्रिय - मंद-सिणेहा ।। ( वेलणकर - संपादित पृ. २३, १४-२).
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'तप्त अने शीतल वस्त वच्चे मेळाप क्याथी होय ? नायिका उतावळी, पण नायकनो स्नेह मंद.
(२). सिहे. ८-४-३९५(१)नो पाठ, अर्थ सिहे ८-४--३९५(१)मां, सं. तक्ष ना छोल्ल एवा आदेश माटे नीचेनं उदाहरण आपलं छे (वोजी आवृत्तिमा आपेल पाठ अने अनुवाद सुधारवानो छे) :
जिव जिवँ तिक्खालेवि किर, जइ ससि छोल्लिज्जंतु । तो जइ गोरिह मुह-कमलि, सरिसिम का-वि लहंतु ॥
'गमे नेम करीने, मानो के, चंदने वधु चकचकतो करवामां आवत तो ते कदाच आ गारीना मखकमळ साथे किंचित समानता प्राप्त करत.
रत्नप्रभसूरिकृत 'उपदेशमाला-दोघट्टी-वृत्ति (ई.स. ११८२)मां जिनशासननी उज्ज्वळता दशावतं विशेषण छोल्लिय-छण-मय-लंछण-च्छाय चकचकित करेला (कलंक घसी काढला) पूनमना चंदनी कान्तिवाळं वपरायं छ (पृ. १११, पद्य ४१).
(३). सिहे. ८-४-४२२ (२)नो पाठ, अर्थ ___ सिहे. ८-४-४२२(२) मां, झकट (खरेखर तो संकट)ना घंघल एवा आदेश माटे नाचनें उदाहरण आपलं छे :
जिव स-परिस तिवें घंघलइँ, जिव नइ तिव॑ वलण.ई। जिवे डंगर ति कोट्टर, हिआ विसूरइ काइँ ॥
रत्नप्रभसूरिकृत उपदेशमाला-दोपट्टी-वृत्ति' (इ.स. १९८२)मां ते ज (थोडा पाठांतरथी) आपलं हे (पृ. ९८, पट्टा ५१) :
जर्हि सु--पुरिस तर्हि घंघलई, जहि नइ तहिं वलणाई। जहिं डुगर तहि खोहरई, सुयण विमरहि काई॥
अहीं खोहरई पाठ (कोट्टरई ने बदले) शंकास्पद लागे छे. प्राकृतमा खोहर शब्द मळतो नथी. हिंदीमा खोह (गुज. खो) छे खरो, ज्यारे गुज. मां कोतर (तकार साथे) तो मळे जहे.
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(४). 'छंदोनुशासनं गत प्राकृत छंदप्रकार द्विभंगीनां उदाहरणोनी पाठचर्चा
१. छंदोनुशासन मां हेमचंद्राचार्ये सामान्य रीते स्वरचित उदाहरणो आप्यां छे. ज्यां कोई पूर्ववर्ती ग्रंथना उदाहरणनो उपयोग कर्यो छे, त्यां पण उदाहरणमां छंटनु नाम ग्रंथानु होवाथी नेमणे जरूरी फेरफार कर्या छे. पण केटलीक वार कोई पूर्ववर्ती स्रोतमाथी उदाहरण उद्धृत करेल छे. जेम के चोथा अध्यायना ८७मा सूत्र नीचे विविध छंदोना संयोजनथी थती द्विभंगीओ तरीके (१) गाथा + भदिका, (२) वस्तुवदनक कर्पूर, (३) वस्तुवदनक कुंकुम, (४) रासावलय + कर्पूर, (५) रासावलयक + कुंकुम, (६) वस्तुवदनक अने रासावलयनुं मिश्रण + कर्पूर, (७) वस्तुवदनक अने रासावलयनुं मिश्रण + कुंकुम, (८) रासावलय अने वस्तुवदनकनुं मिश्रण + कर्पूर. ( ९ ) रासावलय अने वस्तुवदनकनुं मिश्रण कुंकुम, (१०) बदनक + कर्पूर, (११) वदनक + कुंकुम एटला छंदप्रकारोनां उदाहरण संभवतः कोई पूर्ववर्ती छंदोग्रंथमाथी लीघेलां छे. आमांना आठ उदाहरण कत्रिदर्पण ं मां पण मळे छे. 'कविदर्पण कारे छंदोनुशासन माथी ते लीधां होय एत्रो प्रबळ संभव छं, केम के कंटलेक स्थळे तेणे सिद्धम ना प्राकृत विभागमाथी प्रयोगना समर्थन मार्ट उद्धरण आप्या छे. जी के थोडाक पाठ भिन्न छे. आमांथी रासावलय अने कर्पूरनी द्विभंगीनुं उदाहरण नीचे प्रमाणे छे.
परहुअ - पंचम-सवण- सभय मन्नउं स किर तिमणि भणइ न किंपि मुद्ध कलहंस - गिर ।
चंदु न दिक्खण सक्कइ जं सा ससि - वर्याणि दप्पणि मुहु न पलोअइ तिभणि मय - नयणि ||
+
-
वरिउ मणि मन्नवि कुसुम-सरु, खणि खणि सा बहु उत्तसई । अच्छरिउ रुव - निहि कुसुम --सरु, तुह दंसणु जं अहिलसइ |
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(कविदर्पण मां कलयंठि -गिर' अने 'मन्निवि पाठ छे ते बघु सारा छे छेल्ली पंक्तिमा कुसुम - सर एवो पाठ जोईए, ते संबोधन होवाथी).
'हुं मानुं छं के ते मुग्धा कोकिलनो पंचम सूर सांभळवाथी डरे छे, अने ते कारण ज ते कोकिलकंठी पोते क ज बोलती नथी. ए चंद्रवदना चंद जोई शकती नथी, ते कारणे ए दर्पणमा पोतानं मुख जोती नथी. मनमा रहेला कंदर्पने शत्रु मानीने ते क्षणे क्षणे घणो त्रास पामी रही छे, ने तेम छतां ए एक अचरज छे के हे रूपनिधि कंदर्प, ए तारं दर्शन करवानी अबळखा सेवे छे. '
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हवे दसमी शताब्दीमां रचायेली धनंजयना 'दशरूपक उपरनी धनिकनी 'अवलोक' टीकानी एक हस्तप्रतमां चोथा प्रकाशनी ६६मी कारिका उपरनो जे पाठ मळे छे तेमां प्रवासविप्रयोगमा प्रवासचर्चानं नीचेनुं एक उदाहरण मळे छे. (ए ज पद्म ई.स. १२५८ मां रचायेल जल्हणकृत सूक्तिमुक्तावलि' मां पण मळे छे) :
नीरागा शशलांछने मुखमपि स्वे नेक्षते दर्पणे त्रस्ता कोकिलकूजितादपि गिरं नोन्मुद्रयत्यात्मनः । चित्रं दुःसह - दुःख - दायिनि कृत - द्वेषाऽपि पुष्पायुधे मुग्धा सा सुभग ! त्वयि प्रतिकलं प्रेमाणमापुष्यति ॥
स्पष्टपणे आबे अपभ्रंश अने संस्कृत पद्यमांनुं कोई एक बीजानो चोखो अनुवाद ज छे. कयुं पूर्ववर्ती अनेकयुं पश्चाद्वर्ती एनो निर्णय दुष्कर छे.
आनुषंगिक नोंध : उपर छंदोनुशासन मां आपेलां जे द्विभंगी कारोनां उदाहरणोनो निर्देश कर्यो छे तेना प्रा. वेलणकरना संपादनमां आपेला पाठमा केटलाक सुधारा करवा इष्ट छे. ते नीचे प्रमाणे छे :
१. त्रीजा प्रकारनं उदाहरण : पहेली पंक्तिमा किनर विक्खरहि ने बदले कि नरि विक्खिरहि (पाठांतर ) जोईए.
२. चोथा प्रकार उदाहरण : उपर सूचव्युं छे तेम बीजी पंक्तिमा कलयंठि -गिर (कविदर्पण नो पाठ) अने मन्निवि (पाठांतर) जोईए, अने अर्थने अनुसरीने कुसुमसर जोईए.
३. पांचमुं उदाहरण : पहेली, त्रीजी अने पांचमी पंक्तिने आरंभे जड़ अ के जइ छे त्यां जइअ (= यदा) जोईए. आने एक पाठांतर पण समर्थन छे. टीकाकारे पण संपादकनी जेम यदि अर्थ कर्यो छे ते बराबर नथी. सिद्धहेम ८-४-३६५ नीचे यदाना अर्थमा प्राकृतमा जाहे, जाला, जड़आनो प्रयोग थतो होवानुं नध्युं छे.
बीजी पंक्तिमा कुसुमदलम्मि पाठ करतां 'दलग्गि पाठ वधु सारो छे. पांचमी पंक्तिमां वयणगुंफने बदले उकार जाळवतो वयणगुंफु पाठ वधु सारो है.
४. छठ्ठे उदाहरण : करिहि ने बदले करहि इच्छिम इ पणयमुहुं ने बदले इच्छि म इच्छि पणयउ - सुहु ( कविदर्पण नो पाठ), अने अंतिम पक माणिक्किमणसिणि करिव वलु, हेल्लि खेल्लि ता जूड तुहुं ने बदले माणिक्कि मणसिणि करि ठवलु, हेल्लि खेल्लि ता जूउ तुहुं जोईए. आ छेल्ली पंक्तिनो अर्थ टीकाकार पण खोटा पाठने कारणे समज्यो नथी. तेणे तदा हे हस्तिगमने प्रणतमुखं भर्तृमुखं इच्छि दृट्वा हे मानक - मनस्विनी हे सखि बलं अपि कृत्वा क्रीडितुं युक्तं तव । एवो अर्थ कर्यो छे, जे तद्दन श्रान्त छे. मानम् एकं (श्लेषथी माणिक्यम्) हे मनस्विनि कृत्वा दायम्, हे सखि रमस्व तावत् द्यूतं त्वम् । अहीं ठवलु एटले 'जुगारनी बाजीमां जे होडमां मुकाय ते, दाव. ए अर्थमां ठउलु
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शब्दनो प्रयोग स्वयंभूकृत उमचरिउ मां पण मळं छे. त्यां पण रणभूमिने शारिपट्टनु उपमान आपीने तेमां जीवनने होडमा मूकवान रूपक छे.
५. सातमु उदाहरण : त्रीजा पंक्तिमा ल्हसडउ ने बदले ल्हुसडउ (= लुण्टाकः) जोईए. छेल्लो झुलक्कड़ ने बदले झुलुक्कउ जोईए. (आठमा उदाहरणनो बीजो पंक्तिमा ए ज पाठ छे.)
६. आठम उदाहरण : सहि इ ने बदले सहिइ जोईए. छेल्ली वे पंक्तिनो अर्थ टोकाकार समज्यो नथी. तुहने बदले तह, मयणबाणवेयण कलह ने बदले मयणबाण - वेयण-- कलहि अने तुलहने बदले तुलहि पाठ जोईए. “हे तन्वंगी, तं जेमा मदनवाणनी वेदना छे तेवा प्रेमकलहमा लथडतो पड नहीं. हे मानिनी, वल्लभ साथेनुं मान तजी दे, तारा प्राणनी संशयतुला उपर चड नहीं.
७. नवमं उदाहरण. पांचमी पंक्ति, पयड थाइने वदले पयडत्थय (कविदर्पण नो पाठ) जोईए.
८. दसमुं उदाहरण बीजी पंक्तिमा पहिल्लय ने बदले पहल्लिय (पाठांतर)अने छेल्ली पक्तिमा जाइ जाय' ने बदले जाइजाय' जोईए ।
(५). काव्य-गुंफ काव्य रचवानी क्रिया-प्रक्रिया माटे संस्कृत काव्य अने काव्यशास्त्रनी परंपरामा वस्त्र गूंथवा के वणवानं उपमान घण जाणीतं छे. संस्कृत काव्यशास्त्रमा काव्यनो रचना अने बंध विशेनी चर्चामां गफ संज्ञा वपराई छ. गंफ नामना अलंकारमा वर्ण, अर्थ, पद, वाक्य वगेरेनी विशिष्ट पसंदगी अने क्रममा गोठवणी करवानो ख्याल समाविष्ट थयो छे. राघवने शृंगारप्रकाश ना पोताना अध्ययनमा आ विषय विगते चर्को छे.
ग्रवामि काव्य-शशिनं विततार्थ-रश्मिम् ।
('अर्थरूपी किरणोना विस्तारवाळो काव्यरूपी चंद हं गूंथी रह्यो छु )ए चरण जो के वामने (अने तेने अनुसरीने मम्मटे), उपमादोषो गणावता, सादृश्य निराधार होवाथी उत्पन्न थता अनौचित्य-दोषना उदाहरण तरीके आप्यं छे, तो पण तेमां काव्य गूंथवानी वातनो उल्लेख छे ए नोंधवं घटे.
____ आ संदर्भमा प्रभाचंद्रकृत प्रभावकचरित मां आपेल हेमचंदसूरिचरितमां मळतं (पृ. १९०) तत्कालीन देववोध कविन नीचेनं पद्य पण नोंधपात्र छे. ए एक अन्योक्ति छे. वाच्यार्थ छे -गामठी वणकर, तेनाथी वणातां वस्त्र, अने वस्त्र पहेरनारी सुंदरी. गम्यार्थ छ - कवि, रचाता काव्यो अने सहृदय भावको.
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________________ भ्रातर् ग्राम कुविन्द कन्दलयता वस्त्राण्यमूनि त्वया गोणी-विभ्रम-भाजनानि बहुशोऽप्यात्मा किमायास्यते / अप्येकं रुचिरं चिरादभिनवं वासस् तदासूत्र्यते यन् नोज्झन्ति कुच-स्थलात् क्षणमपि क्षोणीभृतां वल्लभाः / / 'हे भाई ! गामठी वणकर, आवां गणपाट समा ढगलाबंध वस्त्रो वणीने तं शा माटे नकामं कष्ट वेटी रह्यो छ ? तुं जोईए तेटलो समय लईने पण मात्र एक ज एवं सुंदर अवनवं वस्त्र वण ने, जे मानीती राजराणीओ पोताना कचप्रदेश परथी क्षणमात्र पण अळगं न करे ! भोजचरित्रमा आपेला एक प्रसंगमा काईक एवा ज तात्पर्यवाळा अने रचनाचातुरीवाळा नीचेना पट्टा प्रत्ये शीलचंदविजयजीए मार ध्यान दोर्यु : काव्यं करोमि न च चारुतरं करोमि यत्नात् करोमि यदि चारुतरं करोमि / भूपालमौलिमणिलुण्ठितपादपीठ ! हे साहसाङ्क ! कवयामि वयामि यामि / / _ 'हं कान्य कर छु, पण ते सुंदर बनतुं नथी. प्रयास कर छ तो (कदीक) सुंदर बनी आवे छ. जेना पादपीठ पास (नमता सामन्त राजवीओना) मकटमणि आळोटे हे (आमथो तेम गति करे छे) एवा हे साहसांक, ह काव्यरचना कर छं, वस्त्र वर्ण छ, जउं छ. [24]