Book Title: Jain Parampara me Swadhyaya Tapa
Author(s): Damodar Shastri
Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf

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Page 3
________________ स्वाध्याय का स्वरूप - स्वाध्याय के स्वरूप के सम्बन्ध में विविध निरूपण प्राप्त होते हैं, जो इस प्रकार हैं - (I) सु+आ+अध्याय-स्वाध्याय। 'सु' यानी भलीभांति (सुष्ठ), 'आ' यानी मर्यादा के साथ, अध्ययन-श्रुत का विशेषतः अनुशीलन ‘स्वाध्याय' है। निष्कर्षतः जिनेन्द्र प्ररूपित शास्त्र का एकाग्र चित्त से अध्ययन-पढ़ना 'स्वाध्याय' है १९। अध्ययन से तात्पर्य, उन शास्त्रों के पठन-पाठन से है. जिनसे चित्त निर्मल होता है या जिससे तत्व बोध, संयम व मोक्ष की प्राप्ति होती है २०। . ___ (II) शास्त्रादि का स्व+अध्याय। यानी अपने लिए-अपनी आत्मा के लिए हितकारी अध्ययन करना 'स्वाध्याय' है (स्वस्मै हितः अध्यायः स्वाध्यायः १) - (III) स्व+अध्याय। यानी 'स्व' का, आत्मा का, अध्ययन २२। आत्मा के आशय को पढ़ना, आत्मा के गुणों की खोज करके उन्हें जीवन में उतारना इस प्रकार आत्मा के स्वाभाविक गुणों की (मननादि द्वारा) प्राप्ति ही वास्तविक स्वाध्याय है। (IV) आलस्य त्याग कर ज्ञान की आराधना को 'स्वाध्याय' कहते हैं। यहाँ 'ज्ञान' पद से 'सच्छास्त्र, आराधना' पद से अध्ययन' मनन आदि अभिप्रेत हैं: अतः भगवान् जिनेन्द्र द्वारा निरूपित जीवा-जीवादि तत्वों के निरूपण करने वाले (बारह अंग, चौदह पूर्व) सच्छास्त्रों का मनन ही (व्यवहार दृष्टि से २९) स्वाध्याय है। 'ज्ञान' पद से आत्मा भी अभिप्रेत होता है । ऐसी स्थिति में आत्माराधना ही (परमार्थ-दृष्टि से) स्वाध्याय है। (V) पंचनमस्कृति रूप 'नमोकार मंत्र' का चित्त की एकाग्रता के साथ, ‘जप' करना परम स्वाध्याय अध्ययन के विविध प्रकार - जैनेतर शास्त्रों में श्रवण मनन, निदिध्यासन-ये तीन प्रकार आत्माराधना के स्वीकृत किये गए हैं । आचार्य शंकर के मत में अध्ययन, प्रवचन, व अध्यापन-ये सभी स्वाध्याय के अन्तर्गत परिगणित हैं १८ १९. तत्त्वानुशासन, ८० २०. विशेषावश्यक भाष्य- ९५८। २१. सर्वार्थसिद्धि ९.२० २२. जिनदास चूर्णि, दशवै ८.४१। २३. सर्वार्थसिद्धि, ९.२० । २४. मूलाचार, ५११। प्रवचनसार १.२७ एवं १.३३ प्रवचनसार १.३३। तत्त्वानुशासन, ८०। २७. बृहदा उप. २.४.५। २८. शांकर भाष्य, तैत्ति. उप. १.११.१। (८४) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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