Book Title: Jain Parampara me Swadhyaya Tapa
Author(s): Damodar Shastri
Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf

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Page 11
________________ .... वस्तुतः तो..जीवन का प्रत्येक क्षण स्वाध्याय का, आत्मचिंतन का होना चाहिए। जीवन की प्रत्येक घटना साधक को कुछ न कुछ ‘सीख' दे सकती है। इसीलिए आगम में कहा-'अपने जीवन को देखो'। १ जीवन में प्रत्येक वस्तु नश्वर है। क्या यह नश्वरता हमें विरक्त होने ८ तथा धर्म की शरण लेने हेतु प्रेरित करने को बाध्य नहीं करती? ८३ साधक को प्रतिक्षण स्वाध्याय-हेतु, आत्मकल्याण हेतु जागृत रहना चाहिए. प्रमाद नहीं करना चाहिए। अज्ञ व पण्डित-दोनों प्रकार के व्यक्तियों के जीवन के अन्तर को देखा जाए तो स्वयं अज्ञता छोड़ने का मन करेगा। ८५ स्वाध्याय-अयोग्य काल - स्वाध्याय के कुछ काल अयोग्य बताए गए हैं, जिन्हें ध्यान में रख कर ही स्वाध्याय करणीय है। ८६ अकाल में समाधि असमाधि के २० स्थानों में से एक है। स्वाध्याय हेतु योग्य स्थान - स्वाध्याय की भूमि प्रायः उपाश्रय से अलग-वृक्ष-मूल आदि एकान्त स्थान होती थी। वहाँ सामान्य जनता का आगमन निषिद्ध था। यही कारण है कि आगमन निषेध के कारण उसका नाम 'नैषिधिकी' पड़ा जो आजकल 'नसिया' के रूप में प्रचलित है। दशवैकालिक में शय्या व नैषिधिकी-ये दो नाम पृथक कथित हैं। यहाँ 'शय्या का अर्थ उपाश्रय' मठ, वसति आदि है, अतः नैषिधिकी को उपाश्रय से पृथक होना चाहिए। चूर्णिकारों के अनुसार नैषेधिकी वह स्थान था जो स्वाध्याय हेतु नियत था, और वह प्रायः पेड़ के नीचे बना होता था। ८९ शास्त्र में गृहस्थ के घर में धर्मकथा प्रबन्ध करने का निषेध भी प्राप्त है। ९० स्वाध्याय-अयोग्य क्षेत्र का निरूपण शास्त्रों में विस्तार से प्राप्त है, जिज्ञासु जनों को वहीं से देखना चाहिए। ९१ ८१. इह जीवियमेव पासहा (सूत्र कृ. १.२.३.८) ८२. भगवती आरा. १८१२ । ८३. उत्त. १४.२५ ८४. समय गोयम मा पमायए ( उत्त. १०.१) ८५. उत्त. ७.२८-३० ८६. ठाणांग-४.२ ३५४, मूलाचार-२७७-२७९ ( जै सि को. ४.५२७)। धवला- ९ ४.१ ५४, गा. ९६-९९-१०९-११४ ( जै. सि. के ४.५२६-२७)। ८७. समवायांग- सम. २०। ८८. सेज्जा उवस्सओ (अगस्त्य-चूर्णि दशवै. ५.२.१)। सेज्जा उवस्तादि मट्ठकोट्ठयादि। (जिनदास चूर्णि वहीं)। शय्यायां वसतौ (हरिभद्रीय टीका)। णिसीहिया-सज्झायठाणां जम्मि वा रुक्खमूलादौ जैव निसीहिया (अगस्त्य चूर्णि)। तह निसीहिया जत्य सज्झायं करेंति (जिनदास चूर्णि)। नैषेधिक्यां स्वाध्यायभूमौ (हरिभद्रीय टीका)। ९०. दशवै. ५.२.८ ९१. ठाणांग-४.२.३५४ धवला-९.४.१.५४ गा. १०१-१०६ (जै.सि.को ४५२६-२७) (९२) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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