Book Title: Jain Parampara me Swadhyaya Tapa
Author(s): Damodar Shastri
Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf

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Page 10
________________ ५. अंगों की क्रमिक उपादेयता अनुसरणीयता धर्मकथा-इस पाँच अंगों का परस्पर सम्बन्ध इस प्रकार है : वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा, पढ़ाने के हेतु शिष्य के प्रति गुरु का प्रयोजन-भाव, यानी पाठ धराना, वाचना है। वाचना ग्रहण करने के अनन्तर संशयादि उत्पन्न होने की स्थिति में शिष्य द्वारा पुनः पूछना, जिज्ञासा प्रकट करना 'पृच्छना' है । पृच्छना से विशोधित सूत्र कहीं विस्मृत न हो जाए इस उद्देश्य से सूत्र का बार-बार अभ्यास, गुणन करना, फेरना परिवर्तना है। सूत्र की तरह अर्थ की विस्मृति होनी स्वाभाविक है, अतः अर्थ का बार-बार अनुप्रेक्षण, मानसिक मनन-चिन्तन 'अनुप्रेक्षा' है। इस प्रकार अभ्यस्त हो चुके 'श्रुत' का आश्रय लेकर धर्मकथा करना, श्रुतधर्म की व्याख्या करना धर्मकथा है। स्वाध्याय किस उद्देश्य से करे? श्रुत का अध्ययन निम्नलिखित उद्देश्यों को ध्यान में रखकर करना चाहिए - १. श्रुत हृदयंगत होगा - इस भावना से । ७३ ७४ २. एकाग्रता की प्राप्ति हेतु । ७५ ३. धर्म में स्वयं स्थिर होकर दूसरों को भी स्थिर करने हेतु । ४. पूजा आदि की कामना से निरपेक्ष कर्म-रज का नाश हेतु । ७६ लौकिक फल सत्कारादि की प्राप्ति हेतु स्वाध्याय करने का शास्त्र द्वारा निषेध है। राव द्वेष से लोगों को ठगने के लिए असच्छास्त्र के स्वाध्याय को वर्ज्य कहा है। ७७ ७८ स्वाध्याय का काल - ७९ के प्रथम व चतुर्थ प्रहर में इसी प्रकार रात्रि के प्रथम व चतुर्थ प्रहर में स्वाध्याय का विधान है। प्रथम प्रहर में सूत्र का स्वाध्याय, द्वितीय प्रहर में सूत्रार्थचिन्तन कर्तव्य है । अनगारधर्मामृत के अनुसार मुनि की दैवसिक चर्या में स्वाध्यय का काल इस प्रकार वर्णित है- सूर्योदय २ घड़ी पश्चात से मध्यान्ह के २ घड़ी पहले तक, मध्यान्ह के २ घड़ी बाद से सूर्यास्त के २ घड़ी पूर्व तक, सूर्यास्त के २ घड्ड़ी बाद से अर्धरात्रि के २ घड़ी पूर्व तक, अर्ध रात्रि के २ घड़ी बाद से सूर्योदय के २ घड़ी पूर्व तक । दशवै. ९४. सू. ५ ( वहीं)। वहीं ७३. ७४. - ७५. ७६. ७७. ७८. ७९. ८०. Jain Education International द्वादशानु. ४६२ । (क) द्वादशानु. ४६२ । (ख) द्वादशा. ४३६ । (ग) सूत्र कृ. १.१३.२२। उत्त. २६.११, २६.१२ उत्त. २६.१७, २६.१८, २६.४३, अनगार धर्मामृत, ९.१-१३, ९.३४-३५ ( को. II / १३७ ) । द्र. धवला ९.४.१.५४ गा. १११ - ११४ ( को ४.५२६) (९१) For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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