Book Title: Jain Parampara me Swadhyaya Tapa Author(s): Damodar Shastri Publisher: Z_Mahasati_Dway_Smruti_Granth_012025.pdf View full book textPage 8
________________ ४. अनुप्रेक्षा' - सन्देह की स्थिति में अधिगत शास्त्र में प्रतिपादित पदार्थ का, सुने हुए अर्थ का. श्रुतानुसार तात्त्विक दृष्टि से, पुनः पुनः मन में अभ्यास, गम्भीर चिन्तन-मनन; मन की स्थिरता हेतु वस्तु-स्वभाव एवं पदार्थ-स्वरूप का या पूर्ण रूप से हृदयंगत श्रुतज्ञान का ५० परिशीलन-पर्यालोचन 'अनुप्रेक्षा' है। ___ अनुप्रेक्षा ग्रन्थ व उसके अर्थ का मानसिक अभ्यास है, न कि शाब्दिक। यही 'आम्नाय' से इसका भेद है। ६१ अनुप्रेक्षा का फल - अनुप्रेक्षा से ज्ञान की गहराई में प्रवेश की क्षमता प्राप्त होती है, तथा ज्ञान क्रमशः प्रदीप्त होता जाता है। तत्त्वचिन्तन एक प्रकर से द्वारपाल है जो विषय वासना के दोषों को अन्दर प्रविष्ट नहीं होने देता। ६२ आयुष्य कर्म को छोड़ कर शेष सात कर्मों की गाढ़ बन्धन से बंधी कर्म-प्रकृतियों का बन्धन अनुप्रेक्षा से शिथिल पड़ जाता है। इससे कर्मबन्ध, के प्रकृतिबन्ध स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध, प्रदेशबन्ध-इस विविधरूपों में शिथिलता, हीनता आजाती है। अनुप्रेक्षा वाले को आयुष्य कर्म कभी बंधते हैं, कभी नहीं भी। असातावेदनीय कर्म के बन्धन बार-बार नहीं बंधते, तथा अनादि-अनंत दीर्घ चार गति रूप संसार-अटवी को शीघ्र ही पार करने की क्षमता प्राप्त हो जाती है। संक्षेप में अनुप्रेक्षा के लाभ इस प्रकार हैं :१. दृढ़ कर्म का शिथिलीकरण, दीर्घकालीन कर्म-स्थिति का संक्षेपीकरण, तीव्र अनुभाग का मन्दीकरण। असातावेदनीय कर्म का अनुपचय। ३. संसार से शीघ्र मुक्ति। ६३ ५९. सर्वार्थसिद्धि, ९.२५। (क) तत्त्वा. ९.२५ भाष्यानुसारी टीका। (ख) धवला १४५. ६१४। (क) धवला ९४.१५५। (ख) तत्त्वा श्रुतसागरीय वृत्ति ९.२५ । (ग) तत्वा. रा वार्तिक, ९.२५.३ (घ) चारित्रसार, पृ. ६७। (ड) हारिभद्रीय वृत्ति, ७, पृ. १०। (च) तत्त्वार्थसार ७२०। (ज) धर्म शर्मा. स्वोपज्ञवृत्ति, ३.५४। ६१. (क) दशवै. नि. १.४८, दशवै. चूर्णि-१, पृ.२९। (ख) तत्त्वा. भाष्य ९.२५। (ग) अनगा. धर्मा. ७.८३। (घ) तत्त्वा. ९.२५ भाष्यानुसारी टीका। ६२. भग. आरा, १८४२। ६३. उत्त. २९.२२। (८९) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.orgPage Navigation
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