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जैन परम्परा में स्वाध्याय तप
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• डॉ. दामोदर शास्त्री
भारतीय परम्परा और स्वाध्याय - भारतीय संस्कृति के विविधि पक्षों को उजागर करने वाले विविध साहित्य का विशाल भण्डार, आज जिस रूप में भी, हमारे पास सुरक्षित है, उसका सारा श्रेय हमारी उस सुदीर्घ परम्परा को है जिसके द्वारा पठन-पाठन, स्वाध्याय, मनन-चिन्तन की प्रवृत्ति को प्रोत्साहन दिया जाता रहा है। जहाँ तक वैदिक संस्कृति का सम्बन्ध है, उसमें मूल ग्रन्थ वेद तथा (वेदांग आदि) के पठन-पाठन, तत्त्व-चर्चा, धर्मोपदेश आदि के रूप में प्रवर्तमान स्वाध्याय की धार्मिक दृष्टि से महत्ता सर्वविदित है। वेद को सर्वविध ज्ञान का भण्डार घोषित कर ' आत्म-ज्ञान या परमात्म-ज्ञान की महत्ता सर्वातिशायिनी थी जरूर , पर वह वेद-प्रतिपादित या उपदिष्ट मार्ग से जुड़ी हुई थी । परवर्ती अन्य स्वतंत्र दार्शनिक मतों का उदभव व विकास भी हुआ, पर वे कमोबेश रूप में आवश्यकतानुसार श्रतु (वेद) को प्रमाण रूप में प्रस्तुत कर अपना मत समर्थित करते हैं । फलतः सुदीर्घ भारतीय इतिहास में वैदिक साहित्य के स्वाध्याय की प्रवृत्ति जोर-शोर से जारी रही। स्वाध्याय को कितना महत्व दिया जाता रहा है-यह भी इसी बात से स्पष्ट है कि ब्रह्मचर्याश्रम में अनेक वर्षों की पढ़ाई की समाप्ति के बाद, गुरु द्वारा शिष्य को जो कई महत्वपूर्ण उपदेश दिए जाते थे, उनमें एक यह भी था -'स्वाध्यायान्मा प्रमदः १ -अर्थात् स्वाध्याय से (अध्ययन, प्रवचन, अध्यापन १) से प्रमाद कभी न करना। अधीत ग्रन्थों के स्वाध्याय से पठित विषय में दृढ़ता आती है, और हमारे अध्ययन की तेजस्विता प्रकट होती है। अध्ययन को तेजस्वी (अर्थज्ञानयोग्य) बनाने की कामना वेद में भी व्यक्त की गई है। ७ सच्छास्त्रों के स्वाध्याय को महत्ता देने के पीछे इसकी महती लौकिक व लोकोत्तर उपयोगिता भी थी। समस्त प्राणी-वर्ग की प्रबल इच्छा रहती है कि वह सर्वत्र, चाहे वह लोक में या लोक से विरक्त-मुक्त रहे, शांति प्राप्त करे। शान्ति प्राप्ति की इस अदम्य लालसा का समर्थन अनेक वैदिक वचनों से होता है “ । स्वाध्याय से लौकिक शांति तो प्राप्त होती है,
१. भूतं भव्य भविष्य च सर्व वेदात् प्रसिद्धयति (मनुस्मृति)। २. यजु. ३.१८, अथ. ९.१०.१, १०.८.४४, ३. संश्रुतेन गमेमहि (अथर्व १.४)।
जैमिनि सू. १.३.३, ब्रह्मासूत्र १.१.३.३, २.३.१.१, न्याय सू. ३.१.३१, वैशेषिक सू. २.१.१७.१९,
१.१.३, सांख्य सू. १.३६.१, १.५३, योग सू. १.७. १.२६,. ___ तैत्ति. उप. १.११.१,
शंकर भाष्य, तैत्ति. उप. १.११.१। तैत्ति. उप., द्वितीय व तृतीय वल्ली का प्रारम्भिक शांतिपाठ। यजु. ३६.१७॥
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लोकोत्तर शांति (मुक्ति) ९ का मार्ग भी खुलता है १०। इसीलिए महर्षि व्यास ने उद्घोषणा की थी - . स्वाध्याय से उत्तम-श्रेष्ठ व अलौकिक शान्ति प्राप्त होती है ११। जैन संस्कृति में भी स्वाध्याय को सर्वदुःखों से मुक्ति देने वाला बताया गया है १२। इसी संदर्भ में महामान्य श्री लोकमान्य तिरक का यह वचन भी मननीय है :
___मैं नरक में भी उत्तम पुस्तकों का स्वागत करूँगा, क्यंकि इनमें वह दिव्य शक्ति है कि जहाँ ये होंगी, वहाँ आप ही स्वर्ग बन जाएगा।"
इसी प्रकार भारतीय संस्कृति की वैदिक धारा में तो स्वाध्याय की महत्ता वियमान है ही, श्रमण धारा के आदि-स्रोत जैन धर्म व दर्शन में भी इसकी उपयोगिता के सम्बन्ध में काफी चिन्तन हुआ है। चाहे वैदिक धारा हो, चाहे श्रमण जैन धारा, दोनों के साहित्य के अनुशीलतन से यह तथ्य प्रकट होता है कि मुनि-वर्ग की दैनिक जीवन-चर्या में तप व स्वाध्याय-इन दोनों की प्रमुख भूमिका है। वाल्मीकि रामायण के प्रथम श्लोक में जिस नारद से राम-कथा के सम्बन्ध में जिज्ञासा प्रकट की गई है, उस नारद का विशेषण है-तपः स्वाध्यायनिरत। अर्थात् वाल्मीकि रामायण का प्रारम्भ. ही तप-स्वाध्याय ज्ञान दो पदों से हुई है । श्रमण (जैन) संस्कृति में भी स्वाध्याय को तप का ही एक भेद (प्रकार) स्वीकार करते हुए " तप व शास्त्रादि-स्वाध्याय में सर्वदा सचेष्ट मुनि को प्रशस्त बताया गया है।
प्रस्तुत निबन्ध द्वारा श्रमणधारा (जैन-धर्म-दर्शन) में 'स्वाध्याय' के विषय में जो विचार-विमर्श हुआ है, उसे संक्षिप्त रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। १५
स्वाध्याय-योग - दशवकालिक सूत्र में १६ 'स्वाध्याय-योग' शब्द व्यवहृत हुआ है। 'योग' शब्द ' के ऐसे तो अनेक अर्थ हैं, पर यहाँ अर्थ है-जोड़ने वाला, सम्बन्ध कराने वाला। किससे सम्बन्ध कराने वाला? समाधान है-मोक्ष से। आचार्य हरिभद्रसूरि ने योग बिन्दु में मोक्ष से सम्बन्ध कराने वाले व्यापार को 'योग' पद से अभिहित किया है १०१ स्वाध्याय भी संयमादि की तरह १८ एक 'योग' है, एक यौगिक क्रिया है, जो मोक्ष-प्राप्ति में सहायक होती है।
९. श्वेता उप. ४.११ मुंडकोप ७ १०. (क) कठोप १.२.२४
छान्दोग्य उप. ३.१४.१
(ख) नैति. उप. १.२.१ पर शांकर भाष्य। पृ. ९६. ब्रह्मानन्दवल्ली ११. म. भा. शांति पर्व, १८४.२ गीता प्रेस सं.। १२. उत्त. २६.१० १३. वा. रामा १.१ १४. भगवती आरा. १०७, उत्त. २६.३७।
द्वादशानु. ४४०। मूलाचार- ९७१ उत्त. ९७१। उत्त. २९.५९ दशवै. ८.६१।
उत्त. २९.१८ पर नेमिचन्द्रीय टीका में उद्धृत। १७. -योगबिन्दु, १.३१॥ १८. दशवै ८.६१ एवं भगवती सू. १८.१०.९।
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स्वाध्याय का स्वरूप - स्वाध्याय के स्वरूप के सम्बन्ध में विविध निरूपण प्राप्त होते हैं, जो इस प्रकार हैं -
(I) सु+आ+अध्याय-स्वाध्याय। 'सु' यानी भलीभांति (सुष्ठ), 'आ' यानी मर्यादा के साथ, अध्ययन-श्रुत का विशेषतः अनुशीलन ‘स्वाध्याय' है। निष्कर्षतः जिनेन्द्र प्ररूपित शास्त्र का एकाग्र चित्त से अध्ययन-पढ़ना 'स्वाध्याय' है १९। अध्ययन से तात्पर्य, उन शास्त्रों के पठन-पाठन से है. जिनसे चित्त निर्मल होता है या जिससे तत्व बोध, संयम व मोक्ष की प्राप्ति होती है २०। .
___ (II) शास्त्रादि का स्व+अध्याय। यानी अपने लिए-अपनी आत्मा के लिए हितकारी अध्ययन करना 'स्वाध्याय' है (स्वस्मै हितः अध्यायः स्वाध्यायः १) -
(III) स्व+अध्याय। यानी 'स्व' का, आत्मा का, अध्ययन २२। आत्मा के आशय को पढ़ना, आत्मा के गुणों की खोज करके उन्हें जीवन में उतारना इस प्रकार आत्मा के स्वाभाविक गुणों की (मननादि द्वारा) प्राप्ति ही वास्तविक स्वाध्याय है।
(IV) आलस्य त्याग कर ज्ञान की आराधना को 'स्वाध्याय' कहते हैं।
यहाँ 'ज्ञान' पद से 'सच्छास्त्र, आराधना' पद से अध्ययन' मनन आदि अभिप्रेत हैं: अतः भगवान् जिनेन्द्र द्वारा निरूपित जीवा-जीवादि तत्वों के निरूपण करने वाले (बारह अंग, चौदह पूर्व) सच्छास्त्रों का मनन ही (व्यवहार दृष्टि से २९) स्वाध्याय है। 'ज्ञान' पद से आत्मा भी अभिप्रेत होता है । ऐसी स्थिति में आत्माराधना ही (परमार्थ-दृष्टि से) स्वाध्याय है।
(V) पंचनमस्कृति रूप 'नमोकार मंत्र' का चित्त की एकाग्रता के साथ, ‘जप' करना परम स्वाध्याय
अध्ययन के विविध प्रकार - जैनेतर शास्त्रों में श्रवण मनन, निदिध्यासन-ये तीन प्रकार आत्माराधना के स्वीकृत किये गए हैं । आचार्य शंकर के मत में अध्ययन, प्रवचन, व अध्यापन-ये सभी स्वाध्याय के अन्तर्गत परिगणित हैं १८
१९. तत्त्वानुशासन, ८० २०. विशेषावश्यक भाष्य- ९५८। २१. सर्वार्थसिद्धि ९.२० २२. जिनदास चूर्णि, दशवै ८.४१। २३. सर्वार्थसिद्धि, ९.२० । २४. मूलाचार, ५११।
प्रवचनसार १.२७ एवं १.३३ प्रवचनसार १.३३।
तत्त्वानुशासन, ८०। २७. बृहदा उप. २.४.५। २८. शांकर भाष्य, तैत्ति. उप. १.११.१।
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जैन शास्त्रों में स्वाध्याय के पांच अंग बताए गए हैं। तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार १. वाचना, २. पृच्छना, ३. प्रतिपृच्छना (अनुप्रेक्षा), ४. आम्नाय, ५. धर्मोपदेश-ये पाँच अंग हैं । व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती सूत्र), मूलाचार आदि के अनुसार १. वाचना, २. पृच्छना, ३. परिवर्तना, ४. अनुप्रेक्षा, ५. धर्म कथा-ये ५ अंग हैं ।
१ वाचना - निर्दोष ग्रन्थ तथा तत्प्रतिपादित अर्थ-इन दोनों के उपदेश का योग्य पात्र को प्रदान करना वाचना है ३१। गुरु शिष्य को सूत्रादि को 'वाचना' प्रदान करता है, भव्य जीव को शास्त्र पढ़ाता है, ग्रन्थ के अर्थ की प्ररूपणा करता है ३२, शिष्य उसको ग्रहण करता है। वह शिष्य भी योग्य पात्रों को वाचना दे सकता है। सामान्यतः सद्गरु से सूत्रपाठ की शिक्षा लेकर (न कि किसी पुस्तकादि से चुरा २२ कर या चोरी से स्वयं पोथी बांच कर) शास्त्रों का वाचन, आत्मकल्याण-हेतु निर्दोष ग्रन्थों को स्वयं पढ़ना दूसरों को समझाने हेतु सूत्रानुयोगी व्याख्यान करना या वाचन करना-ये सब कार्य वाचना के अन्तर्गत हैं।
सूत्र-व्याख्यान के ६ भेद शास्त्रों में बताए गए हैं-(१) संहिता (पद का अस्खलित, शुद्ध उच्चारण), (२) पद (वाक्य के प्रत्येक पद का शुद्ध-शुद्ध पृथक-पृथक् उच्चारण, (३) (पदार्थ पद का अर्थ) ,(४) पद-विग्रह, (५) (पदच्छेद) (चालना शंका आदि उठाना), (६) प्रसिद्धि (उठाई गई शंकाओं का समुचित समाधान) २५
सूत्रों का उच्चारण इस तरह सांगोपांग व परिपूर्ण रूप से किया जाए कि अक्षरादि की स्खलना न हो, पदों को पृथक-पृथक कर पढ़ा जाए, अपनी ओर से कोई अक्षर, पद आदि का न तो योग किया जाय और न ही कमी की जाए, वर्गों का यथास्थान (उदात्तादिघोष-नियमानुरूप), सुस्पष्ट (न कि अव्यक्त)उच्चारण हो, प्रत्येक पद माला में गुंथे फूल जैसा सुशोभित हो। २५
२९. तत्त्वा . सू. ९.२५। ३०. (क) व्याख्या प्र. २५.७.८०१
(ख) मूलाचार -३९३
(ग) उत्त. ३०.३४। ३१. (क) औपपा. १९
(ख) सर्वार्थसिद्धि ९.२५। ३२. धवला ९.४.१.५४, ५५, जै. को. ३.५.३९। ३३. अनुयोग द्वार, १३-१४ सू.।
विशेषावश्यक भाषय- ८५०-८५५। ३४. उद्धृत, सुत्तागमे, II भाग पृ. ५८-५९ ३५. (क) अनुयोगद्वार सू. १३-१४।
(ख) द्र. विशेषावश्यक भाष्य, ८५१, ८५४, ८५५। (ग) व्या. महाभाष्य पस्पशान्हिक १.१.१॥
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दिगम्बर ग्रन्थों में वाचना के चार प्रकार इस प्रकार बताए गए हैं- (१) नन्दा, (२) भद्रा, (३) जया, (४) सौम्या |
३६
नन्दा
अन्यदर्शनों को पूर्व पक्ष के रूप में उपस्थापित कर स्व (जैन) मत को सिद्धान्त रूप में उपस्थापित करने की वाचना 'नन्दा' है।
३७
भद्रा - युक्तिपूर्वक समाधान कर पूर्वापर-विरोध को हटाते हुए समस्त पदार्थों की व्याख्या 'भद्रा वाचना' है । सूत्रार्थका पूर्वापर - संगित के साथ अपने लिए ज्ञान से, तथा दूसरों के लिए वचनों से निर्गमना (निर्यापना = अर्थ - निरूपणा) वाचना- सम्पद कही जाती है।
३८
जया - पूर्वापर-विरोध - परिहार के बिना सिद्धान्त - अर्थों का कथन 'जया' वाचना है।
३९
सौम्या 'सौभ्या' है।'
४०
-
(१)
(२)
(३)
(४)
(4)
(६)
४१
'वाचना' की स्थिति में शिष्य को मान, क्रोध, प्रमाद, आलस्य आदि से रहित होना चाहिए । गुरु द्वारा वाचना (अध्यापन) के निम्नलिखित लाभ शास्त्रों में वर्णित हैं -
श्रुत (शास्त्र ) का संग्रह (शास्त्र - ज्ञान भण्डार में वृद्धि ) ।
शास्त्र ज्ञान से उपकृत शिष्य के मन में शास्त्र सेवा करने की भावना का प्रादुर्भाव ।
श्रुत की उपेक्षा के दोष से सुरक्षा, श्रुत के अनुवर्तन से अनशातना - ज्ञान का विनय ।
ज्ञान प्रतिबन्धक कर्मों की निर्जरा, संस्कार क्षय । चरम साध्य की उपलब्धि ।
वाचना का फल
(61)
३६.
३७.
३८.
३९.
४०.
४१.
४२.
-
४३.
कहीं-कहीं स्खलनपूर्ण वृत्ति से, ( थोड़ा-थोड़ा भाग छूते हुए) की जाने वाली वाचना
रत्नत्रय (सम्यग्दर्शनादि) की संसिद्धि ।
(८) मिथ्यात्व का नाश एवं सत्य को प्राप्त करने की तीव्र जिज्ञासा वृत्ति का उदय ।
४३
-
अभ्यस्त शास्त्र में स्थिरता ।
निरन्तर शास्त्र - वाचना से 'सूत्र' को विच्छन्न न होने देना । फलतः तीर्थधर्म का अवलम्बन - धर्मपरम्परा की अविच्छिन्ता ।
४२
धवला ९.४.१.५४५
वही, पूर्वोक्त।
उत्त. १.५८ नियुक्ति शांति सूरि वृत्ति ।
वहीं पूर्वोक्त।
वहीं, पूर्वोक्त।
उत्त. ११.३ ।
स्थानांग ५.३.५४१ ।
वायणा एवं भंते किं जणाय ? निज्जर जणाय । सुयस्य अणासायना एवम् सुयस्य अणासायणाए ।
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वाचनादि के पात्र सिद्धान्त का, आगम - रहस्य का ज्ञान गुणवान व योग्य पात्र देख कर ही करना उचित है। आचार्य हरिभद्रसूरि लिखते हैं कि जिस प्रकार कच्चे घड़े में भरा जल उस घड़े को ही विनष्ट कर देता है, वैसे ही गुणरहित व्यक्ति को दिया हुआ सिद्धान्त - रहस्य उस अल्पा- धार शिष्य का ही विनाश करता है।
४४
स्वाध्याय करने वाले शिष्य के गुरु के प्रति कर्तव्य - अकर्तव्य आदि के विषय में तथा योग्य व अयोग्य शिष्य के स्वरूप के विषय में जैन शास्त्रों में विस्तृत निरूपण प्राप्त होता है ।
४५
४६
पृच्छना संशय का उच्छेद करने या निश्चित बल (महत्त्व ) को पुष्ट करने हेतु प्रश्न करना 'पृच्छना' है। शास्त्रों के संदिग्ध अर्थ को किसी दूसरे से पूछना, सत्पथ की ओर बढ़ने हेतु मोक्षादिमार्ग का स्वरूप निश्चित करना, संशय-निवारणार्थ प्रश्न या जिज्ञासा करना। पढ़ते समय; या पढ़ने के बाद, शिष्य के मन में जहाँ कोई शंका उठे ऐसी स्थिति में, अथवा कोई बात आगम में स्पष्ट न हो सकती हो, उसके सम्बन्ध में गुरुजनों आदि से समाधान पाने का प्रयत्न करना 'पृच्छना' हैं। ये प्रश्न एक प्रकार से विषय की सुस्पष्टता के लिए प्रारम्भिक कदम है। इसीलिए शास्त्रों में आचार्यादि बहुश्रुत के समक्ष अर्थ-विनिश्चय हेतु जिज्ञासा रखने की प्रेरणा दी गई है।
४७
४८
उक्त निरूपण से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि पृच्छा या जिज्ञासा का मुख्य उद्देश्य स्वसंशयोच्छेद व अर्थ-विनिश्चय है । अतः अपने को बड़ा ज्ञानी व अध्येता प्रदर्शित करने, दूसरे को दबाने या उस पर रौब डालने या उसका उपहास करने, या विवाद - कलह करने की भावना से प्रश्न करना शास्त्रसम्मत नहीं ।
४९
५०
पृच्छा या जिज्ञासा विशेषतः द्रव्य, गुण, पर्याय के विधि-निषेध विषयक होती है। अथवा सामान्यतः सूत्र या उसके अर्थ के सम्बन्ध में कोई भी जिज्ञासा या प्रश्न 'पृच्छा' है।
५१
शास्त्र के अर्थ को जानने वाला भी, गुरु आदि के समक्ष जिज्ञासा रख सकता है ताकि वह असंदिग्ध (पूर्णतः निश्चित ) हो जाए । स्वयं असंदिग्ध भी हो तब भी जिज्ञासा की जा सकती है ताकि ग्रन्थ के अर्थ की और भी अधिक पुष्टि (बलाधान) हो जाए। ५२
४४.
४५.
४६.
४७. धवला ९.४.१.५५, धवला, पु. १४ पृ. ९
दशवै. ८.४३। धवला १३.५.५.५०१
४८.
४९. राजवार्तिक ९.२५०२/
५०.
हरिभद्रीय टीका, दशवै. ४.१ ।
सूत्रकृतांग- १.९.३३; १.४.१-१०, दशवै नवम अध्ययन, उत्तराध्ययन प्रथम व एकादश अध्ययन ।
तथा राजवार्तिक ९.१२५.२. अनगारधर्मामृत- ७.८४; धवला १४.५.६.१३ ।
५१.
५२.
धवला, १३.५.५.५०।
घवला,
वहीं ।
तत्त्वार्थ. श्रुतसागरीयवृत्ति, ९.२५ ।
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"
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पृच्छना का फल सूत्र (शास्त्र) तथा तत्प्रतिपादित अर्थ इन दोनों से सम्बन्धित सन्देह की निवृत्ति, संशय, विपर्यय आदि का निराकरण, तथा कांक्षामोहनीय कर्म का क्षय आदि पृच्छना के फल है।
५३
गृहीत ज्ञान
३. परिवर्तना (या आम्नाय) स्थायी बनाने हेतु किसी सूत्र का या पठित शास्त्र का, आचारविद, व्रती द्वारा स्वयं किया गया बारबार शुद्ध (पाठ-दोषों से रहित) पाठ' 'परिवर्तना' है । ५४ परिचित श्रुत का मर्म समझने, तथा स्मृति में पूर्णतः स्थिर करने हेतु यह एक प्रकार का परिशीलन या पर्यालोचन भी है। ५५ पठित ग्रन्थ का शुद्ध-शुद्ध उच्चारण करते हुए बारबार पाठ से तत्सम्बद्ध अर्थ मन में दृढ़ता से बैठता जाता है ।
आम्नाय, घोषविशुद्ध, परिवर्तन (ना),
५३.
५४.
-
स्तुति भी (परिवर्तना) स्वाध्याय है निरन्तर अर्हन्त भगवान् के ध्यान में लीन रहता हुआ 'जो अर्हन् शं वो दिश्यात्' (अर्हन्त भगवान तुम्हारा कल्याण करें ) इत्यादि स्तुति वचन उचारता है, वह भी स्वाध्याय है, क्योंकि इस स्तुति से भी परम्परया मोक्ष - प्राप्ति मानी गई।
५७
५५.
५६.
-
परिवर्तन का फल शास्त्रों में परिवर्तना का फल अक्षरों की उत्पत्ति, अर्थात् स्मृति की परिपक्वता और विस्मृत की स्मृति, तथा व्यंजन - लब्धि (वर्णविद्या) की यानी पदानुसारिणी बुद्धि की प्राप्ति बताया गया है। ५८
५७.
५८.
गुणन, रूपादान- ये सभी शब्द एकार्थक हैं
-
दशवै. चूर्णि, पृ. २८
(क) तत्त्वार्थ. ९.२५ श्रुतसागरीयवृत्ति ।
(ख) राजवार्तिक ९.२५.४
(ग) चारित्रसाग- पृ. ८७,
(घ) भगवती आरा. टीका, १३९
(ड) अनगार धर्मामृत ७८७
(च) तत्त्वार्थसार, ७.१९
धवला, ९.४.१.५५।
(क) तत्वा. सू. ९.२५ भाष्य
(ख) भगवती आरा. १०४ टीका ।
(क) अनगार धर्म. ७.९२ ।
(ख) आ. भद्रबाहु, आव. नियुक्ति, १०७३।
उत्त. २९.२ ।
५६,
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४. अनुप्रेक्षा' - सन्देह की स्थिति में अधिगत शास्त्र में प्रतिपादित पदार्थ का, सुने हुए अर्थ का. श्रुतानुसार तात्त्विक दृष्टि से, पुनः पुनः मन में अभ्यास, गम्भीर चिन्तन-मनन; मन की स्थिरता हेतु वस्तु-स्वभाव एवं पदार्थ-स्वरूप का या पूर्ण रूप से हृदयंगत श्रुतज्ञान का ५० परिशीलन-पर्यालोचन 'अनुप्रेक्षा' है।
___ अनुप्रेक्षा ग्रन्थ व उसके अर्थ का मानसिक अभ्यास है, न कि शाब्दिक। यही 'आम्नाय' से इसका
भेद है। ६१
अनुप्रेक्षा का फल - अनुप्रेक्षा से ज्ञान की गहराई में प्रवेश की क्षमता प्राप्त होती है, तथा ज्ञान क्रमशः प्रदीप्त होता जाता है। तत्त्वचिन्तन एक प्रकर से द्वारपाल है जो विषय वासना के दोषों को अन्दर प्रविष्ट नहीं होने देता। ६२ आयुष्य कर्म को छोड़ कर शेष सात कर्मों की गाढ़ बन्धन से बंधी कर्म-प्रकृतियों का बन्धन अनुप्रेक्षा से शिथिल पड़ जाता है। इससे कर्मबन्ध, के प्रकृतिबन्ध स्थितिबन्ध, अनुभागबन्ध, प्रदेशबन्ध-इस विविधरूपों में शिथिलता, हीनता आजाती है। अनुप्रेक्षा वाले को आयुष्य कर्म कभी बंधते हैं, कभी नहीं भी। असातावेदनीय कर्म के बन्धन बार-बार नहीं बंधते, तथा अनादि-अनंत दीर्घ चार गति रूप संसार-अटवी को शीघ्र ही पार करने की क्षमता प्राप्त हो जाती है। संक्षेप में अनुप्रेक्षा के लाभ इस प्रकार हैं :१. दृढ़ कर्म का शिथिलीकरण, दीर्घकालीन कर्म-स्थिति का संक्षेपीकरण, तीव्र अनुभाग का मन्दीकरण।
असातावेदनीय कर्म का अनुपचय। ३. संसार से शीघ्र मुक्ति। ६३ ५९. सर्वार्थसिद्धि, ९.२५।
(क) तत्त्वा. ९.२५ भाष्यानुसारी टीका। (ख) धवला १४५. ६१४। (क) धवला ९४.१५५। (ख) तत्त्वा श्रुतसागरीय वृत्ति ९.२५ । (ग) तत्वा. रा वार्तिक, ९.२५.३ (घ) चारित्रसार, पृ. ६७। (ड) हारिभद्रीय वृत्ति, ७, पृ. १०। (च) तत्त्वार्थसार ७२०।
(ज) धर्म शर्मा. स्वोपज्ञवृत्ति, ३.५४। ६१. (क) दशवै. नि. १.४८, दशवै. चूर्णि-१, पृ.२९।
(ख) तत्त्वा. भाष्य ९.२५। (ग) अनगा. धर्मा. ७.८३।
(घ) तत्त्वा. ९.२५ भाष्यानुसारी टीका। ६२. भग. आरा, १८४२। ६३. उत्त. २९.२२।
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५. धर्मकथा - सर्वज्ञप्रणीत अहिंसादि लक्षण रूप धर्म का कथन (अनुयोग) धर्म-कथा है। इसे धर्मोपदेश भी कहते हैं। ६४ धर्मकथा के अन्तर्गत त्रेसठ शलाका पुरुषों का चरित्र पढ़ना-चित्त का विषयों से रोक कर शान्तिदायी पाठों का अभ्यास तथा उन्हें कण्ठस्थ करना, चिन्तन-मनन के बाद तत्व रहस्य जब स्वयं को उपलब्ध हो जाएं तब विचारामृत को जन-जन के समक्ष प्रस्तुत करना, दूसरों को सत्य के अन्वेषण हेतु मार्ग बताना, तथा सन्देह-निवृति हेतु पदार्थ का स्वरूप बताना, श्रुतादि धर्म की व्याख्या करना, तथा श्रोताओं में रत्नत्रय की प्राप्ति हेतु प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करने के लिए स्वतंत्र रूप से धार्मिक उपदेशादि द्वारा बर्द्धित करना आदि परिगणित हैं।
प्रमुखतः दिगम्बरमतानुसार प्रथमानुयोग रूप तथा श्वेताम्बर मतानुसार धर्मकथानुयोग रूप शास्त्र 'धर्मकथा' में परिगणित है।
धर्मोपदेश, अर्थोपदेश, व्याख्यान, अनुयोग-वर्णन ये सब पर्यायवाची शब्द हैं। ६६ ___ मुनि स्वयं तो लौकिकी कथा, विकथा, ६७ तथा असच्छास्त्रों के अध्ययन से दूर रहते ही हैं, दूसरों को भी धर्मकथा में प्रवृत्त कराते हैं। ६८ शास्त्र-ज्ञान भी एक सद्दन है। ६९ इस ज्ञान-दान के सम्बन्ध में भी पात्र-अपात्र का विचार करना चाहिए तथा स्वयं को भी योग्य उपदेशक के रूप में प्रतिष्ठापित करना चाहिये। ७° सन्मार्गोपदेश के समान कोई परोपकार नहीं। ७१ अतः धर्मकथा का महत्व सभी दृष्टियों से सिद्ध होता है।
धर्मकथा के फल - धर्मकथा से कर्मनिर्जरा होती है, साथ ही धर्मशास्त्र प्रवचन की प्रभावना भी। प्रभावना के फलस्वरूप भविष्य में कल्याणकारी फल वाले (कुशल) कर्म ही अर्जित होते हैं। ७२
६४. सर्वार्थ. ९.२५। ६५. (क) गोम्मटसार, जीवकाण्ड, ८८॥
(ख) महापुराणा १.१२०॥ तत्त्वा ९.२५ भाष्य टीका। विकथा सात प्रकार की होती है- (१) स्त्रीकथा (२) भत्तकथा (भोजन सम्बन्धिनी कथा) (३) देशकथा (४) राजकथा (५) मृदुकारुणिकी (विपत्तिग्रस्त व्यक्ति को लक्ष्य कर करुणा रसप्रधान वार्ता), (६) दर्शनमोहिनी सम्यग्दर्शन व धर्म श्रद्धा को कम करने वाली कथा, (७) चारित्र भेदिनी। (क) मूलाचार ८५४, ८५७
(ख) दशवै. ८.४१॥ ६९. (क) वसुनन्दि आवकाचार २३३। ।
(ख) सर्वार्थ. ६.२४। उपदेशक के स्वरूप, धर्मोपदेश की विधि आदि के विषय में देखे- सूत्र कृतांग १.१४, १८-२७;
१.१११.२४; १.१३.२०,२२, (म.वा.पृ.३२७) असाधु धर्मोपदेश के अपात्र है- (१.१४.२० बहीं)। ७१. आदिपुराणा १.७६। ७२. (उत्त. २९.२३।
E७.
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५. अंगों की क्रमिक उपादेयता अनुसरणीयता धर्मकथा-इस पाँच अंगों का परस्पर सम्बन्ध इस प्रकार है :
वाचना, पृच्छना, परिवर्तना, अनुप्रेक्षा,
पढ़ाने के हेतु शिष्य के प्रति गुरु का प्रयोजन-भाव, यानी पाठ धराना, वाचना है। वाचना ग्रहण करने के अनन्तर संशयादि उत्पन्न होने की स्थिति में शिष्य द्वारा पुनः पूछना, जिज्ञासा प्रकट करना 'पृच्छना' है । पृच्छना से विशोधित सूत्र कहीं विस्मृत न हो जाए इस उद्देश्य से सूत्र का बार-बार अभ्यास, गुणन करना, फेरना परिवर्तना है। सूत्र की तरह अर्थ की विस्मृति होनी स्वाभाविक है, अतः अर्थ का बार-बार अनुप्रेक्षण, मानसिक मनन-चिन्तन 'अनुप्रेक्षा' है। इस प्रकार अभ्यस्त हो चुके 'श्रुत' का आश्रय लेकर धर्मकथा करना, श्रुतधर्म की व्याख्या करना धर्मकथा है।
स्वाध्याय किस उद्देश्य से करे?
श्रुत का अध्ययन निम्नलिखित उद्देश्यों को ध्यान में रखकर
करना चाहिए -
१. श्रुत हृदयंगत होगा - इस भावना से । ७३
७४
२. एकाग्रता की प्राप्ति हेतु ।
७५
३. धर्म में स्वयं स्थिर होकर दूसरों को भी स्थिर करने हेतु । ४. पूजा आदि की कामना से निरपेक्ष कर्म-रज का नाश हेतु ।
७६
लौकिक फल सत्कारादि की प्राप्ति हेतु स्वाध्याय करने का शास्त्र द्वारा निषेध है। राव द्वेष से लोगों को ठगने के लिए असच्छास्त्र के स्वाध्याय को वर्ज्य कहा है। ७७
७८
स्वाध्याय का काल
-
७९
के प्रथम व चतुर्थ प्रहर में इसी प्रकार रात्रि के प्रथम व चतुर्थ प्रहर में स्वाध्याय का विधान है। प्रथम प्रहर में सूत्र का स्वाध्याय, द्वितीय प्रहर में सूत्रार्थचिन्तन कर्तव्य है । अनगारधर्मामृत के अनुसार मुनि की दैवसिक चर्या में स्वाध्यय का काल इस प्रकार वर्णित है- सूर्योदय २ घड़ी पश्चात से मध्यान्ह के २ घड़ी पहले तक, मध्यान्ह के २ घड़ी बाद से सूर्यास्त के २ घड़ी पूर्व तक, सूर्यास्त के २ घड्ड़ी बाद से अर्धरात्रि के २ घड़ी पूर्व तक, अर्ध रात्रि के २ घड़ी बाद से सूर्योदय के २ घड़ी पूर्व तक ।
दशवै. ९४. सू. ५
( वहीं)।
वहीं
७३.
७४.
-
७५.
७६.
७७.
७८.
७९.
८०.
द्वादशानु. ४६२ ।
(क) द्वादशानु. ४६२ ।
(ख) द्वादशा. ४३६ ।
(ग) सूत्र कृ. १.१३.२२।
उत्त. २६.११, २६.१२
उत्त. २६.१७, २६.१८, २६.४३,
अनगार धर्मामृत, ९.१-१३, ९.३४-३५ ( को. II / १३७ ) । द्र. धवला ९.४.१.५४ गा. १११ - ११४ ( को
४.५२६)
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.... वस्तुतः तो..जीवन का प्रत्येक क्षण स्वाध्याय का, आत्मचिंतन का होना चाहिए। जीवन की प्रत्येक घटना साधक को कुछ न कुछ ‘सीख' दे सकती है। इसीलिए आगम में कहा-'अपने जीवन को देखो'। १ जीवन में प्रत्येक वस्तु नश्वर है। क्या यह नश्वरता हमें विरक्त होने ८ तथा धर्म की शरण लेने हेतु प्रेरित करने को बाध्य नहीं करती? ८३ साधक को प्रतिक्षण स्वाध्याय-हेतु, आत्मकल्याण हेतु जागृत रहना चाहिए. प्रमाद नहीं करना चाहिए। अज्ञ व पण्डित-दोनों प्रकार के व्यक्तियों के जीवन के अन्तर को देखा जाए तो स्वयं अज्ञता छोड़ने का मन करेगा। ८५
स्वाध्याय-अयोग्य काल - स्वाध्याय के कुछ काल अयोग्य बताए गए हैं, जिन्हें ध्यान में रख कर ही स्वाध्याय करणीय है। ८६ अकाल में समाधि असमाधि के २० स्थानों में से एक है।
स्वाध्याय हेतु योग्य स्थान - स्वाध्याय की भूमि प्रायः उपाश्रय से अलग-वृक्ष-मूल आदि एकान्त स्थान होती थी। वहाँ सामान्य जनता का आगमन निषिद्ध था। यही कारण है कि आगमन निषेध के कारण उसका नाम 'नैषिधिकी' पड़ा जो आजकल 'नसिया' के रूप में प्रचलित है। दशवैकालिक में शय्या व नैषिधिकी-ये दो नाम पृथक कथित हैं। यहाँ 'शय्या का अर्थ उपाश्रय' मठ, वसति आदि है, अतः नैषिधिकी को उपाश्रय से पृथक होना चाहिए। चूर्णिकारों के अनुसार नैषेधिकी वह स्थान था जो स्वाध्याय हेतु नियत था, और वह प्रायः पेड़ के नीचे बना होता था। ८९
शास्त्र में गृहस्थ के घर में धर्मकथा प्रबन्ध करने का निषेध भी प्राप्त है। ९० स्वाध्याय-अयोग्य क्षेत्र का निरूपण शास्त्रों में विस्तार से प्राप्त है, जिज्ञासु जनों को वहीं से देखना
चाहिए। ९१
८१. इह जीवियमेव पासहा (सूत्र कृ. १.२.३.८) ८२. भगवती आरा. १८१२ । ८३. उत्त. १४.२५ ८४. समय गोयम मा पमायए ( उत्त. १०.१) ८५. उत्त. ७.२८-३० ८६. ठाणांग-४.२ ३५४, मूलाचार-२७७-२७९ ( जै सि को. ४.५२७)।
धवला- ९ ४.१ ५४, गा. ९६-९९-१०९-११४ ( जै. सि. के ४.५२६-२७)। ८७. समवायांग- सम. २०। ८८. सेज्जा उवस्सओ (अगस्त्य-चूर्णि दशवै. ५.२.१)। सेज्जा उवस्तादि मट्ठकोट्ठयादि। (जिनदास चूर्णि वहीं)।
शय्यायां वसतौ (हरिभद्रीय टीका)। णिसीहिया-सज्झायठाणां जम्मि वा रुक्खमूलादौ जैव निसीहिया (अगस्त्य चूर्णि)। तह निसीहिया जत्य सज्झायं
करेंति (जिनदास चूर्णि)। नैषेधिक्यां स्वाध्यायभूमौ (हरिभद्रीय टीका)। ९०. दशवै. ५.२.८ ९१. ठाणांग-४.२.३५४ धवला-९.४.१.५४ गा. १०१-१०६ (जै.सि.को ४५२६-२७)
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स्वाध्याय-विधि - इस सम्बन्ध में भी विस्तृत जानकाीर शास्त्रों में दी गई है। १२ ।
स्वाध्याय-योग्य ग्रन्थ - सच्छास्त्र ही योग्य हैं। इस सम्बन्ध में भी विशेष निरुपण शास्त्रों में पर्याप्त है, जो मननीय हैं। ९३
स्वाध्याय का महत्त्व - जैन धर्म व दर्शन की दृष्टि से स्वाध्याय का स्वरूप कई रूपों में प्रमाणित किया जा सकता है। जैन धर्म व दर्शन के क्षेत्र में स्वाध्याय को दैनिक-चर्या में क्या स्थान दिया गया है, स्वाध्याय का क्या स्वरूप प्रतिपादित है-अर्थात् इसकी स्वरूपगत विशेषता क्या है? इसका प्रयोजन व फल कितना महनीय प्रतिपादित हुआ है, इन सब बातों पर विचार किया जाए तो स्वाध्याय की महत्ता स्वतः उजागर हो जाती है।
(क) श्रावकधर्म में परिगणित - शास्त्रों में श्रावक (जैन) के ६ आवश्यक दैनिक क्रम बताए गए हैं, उनमें स्वाध्याय तत्वाभ्यास आदि) का भी परिगणन है। १४
सागार धर्मामृत में कहा गया है कि जो श्रावक स्वाध्यायादि में आलस्य करता है, वह हितकार्यों में प्रमाद करता है। ९५
(ख) स्वाध्याय-एक तप - स्वाध्याय का जो स्वरूप शास्त्रों में प्रतिपादित है, वह भी इसकी महत्ता को उजागर करता है। श्रमण संस्कृति-यह नाम ही इस धर्म में 'तप' की महत्ता प्रतिपादित करने हेतु पर्याप्त है। 'श्रम' यानी तप, जो श्रम या तप करे वह श्रमण। १६ मोक्ष या आत्मसाधना के मार्ग में 'तप' की महत्ता सर्वोपरि असंदिग्ध है। ९७ 'तप' से कर्मों का आना तो रुकता ही है, पूर्व उपार्जित कर्मों की निर्जरा भी होती है। इस प्रकार तप की द्विविध क्रिया बताई गई है। 'तप' रूपी अग्नि से आत्मा रूपी स्वर्ण निष्कलंक बन जाता है। १९ मोक्षमार्ग से सुआचरित तप अज्ञानान्धकार नाशक 'दीपक' है। १००
९२. द्र. दशवै. ५.१.९३, अनगारधर्मा. ९.४५-७४, ८२८५, मूलाचार-२८०, ३९३, धवला-९.४.१.५४ गा.
१०७ (जै.सि.को ४.५२७)। आत्मानुशासन-१७०, वसुनन्दि श्रावकाचार-३१२, सागारधर्मा. ७.५०, (जै.सि.को. ४.५२)। देवपूजा गुरुपास्ति: स्वाध्याय: समयस्तपः। दान चेति गृहस्थानां षट्कर्माणि दिने-दिने। (पद्मनन्दि प. ६.९)। तत्वाभ्यासो स्वकीयव्रतरतिरमलं दर्शनं यत्र पूज्यं तद्गार्हस्थ्य प्रधानम् (पदमनन्दि प. १,१३)। गृहस्थस्य इज्या, वार्ता, दत्ति;, स्वाध्ययायः सयमच तपः- इति आर्यषट्कर्माणि भवन्ति चारित्रसार, पृ. ४३, जै.सि. को
४.५१)। ९५. स्वाध्यायमुत्तमं कुर्यात्, अनुप्रेक्षाश्च भावयेत्। यस्तु मन्दायते तत्र स्वाकाये स प्रमाद्यति। ( धर्मा. ७.५५) ९६. (क) दशवै. १.३ पर हारिभद्रीय टीका (ख) सूत्रकृतांग १.१६.२ पर शीलांकाचार्य टीका। ९७. उत्. २८.२ ( तुलना-तपसा ब्रह्मा विजिज्ञासस्व, तैत्ति. उप. ३.२.५)। ९८. तपसा निर्जना च (त. सू. ९.३)। भगवती आरा. १८५१, दहइ तवो भवबीयं तणाकट्ठादी जहा (मूलाचार,
७४७)। ९९. तवसा तथा विसुज्झदि जीवो कम्मेहिं कणायं वा (मूलाचार ५.५६)। १००. होइ सुतवों य दीओ अण्णाणतमंधयारचारिस्स (भगवती आरा. १४६६)।
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स्वाध्याय और
१०४
तप के अन्तरङ्ग व बाह्य- इन दो भेदों में से स्वाध्याय ६ अन्तरंग तपों में से एक है। बारह प्रकार के तपों में भी स्वाध्याय की श्रेष्ठता है। शास्त्रकार के शब्दों में १०२ " स्वाध्याय के समान न तो कोई तप है और न कोई भविष्य में इससे अधिक श्रेष्ठ तप होगा। तप की तरह १०३ उससे प्राप्त सज्ज्ञान से भी कर्मों का अतिशीघ्र क्षय किया जा सकता है। (ग) मुनि चर्या में स्वाध्याय का प्रमुख स्थान साधु के लिए जो आवश्यक ६ क्रियाएं निर्धारित है, उनमें स्वाध्याय भी एक है। केवल चार घड़ी सोने के अलावा मुनि अपना समय आवश्यक धर्मक्रियाओं में ही लगाता है। उनमें भी स्वाध्याय में मुनि को, आठ प्रहर के पूरे दिन रात में चार प्रहर का समय (यानी आधा समय) व्यतीत करना होता है। प्रथम प्रहर में सूत्र- स्वाध्याय, द्वितीय प्रहर में (सूत्रार्थ - चिन्तन) ध्यान, तृतीय में भिक्षाचर्या, चतुर्थ में पुनः स्वाध्याय करने की मुनिचर्या शास्त्रों में विहित है। इस विधि-विधान में त्रुटि आने पर प्रतिक्रमण में उक्त भूल का प्रायश्चित्त करता है । १०६
१०५
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(घ) स्वाध्याय के महनीय फल (१) पज्ञातिशय ज्ञान से ही साधक 'मुनि' होता है।' ज्ञान का प्रकाश सूर्य के प्रकाश से भी बढ़ कर है १०८ इसके बिना मोक्षमार्ग को पार करना कठिन है। १०९ ज्ञान मोक्ष मार्ग का तत्व प्रकाशक एक दीपक है। ११० अतः शास्त्रों में ज्ञान दीप को प्रज्वलित करने की प्रेरणा दी गई। १११ ज्ञान का यह दीपक स्वाध्याय के अभ्यास के बिना प्रदीप्त नहीं हो सकता । स्वाध्याय से सभी संशयों की निवृत्ति, ११४ तथा ज्ञान का प्रसार होता है। इसीलिए स्वाध्याय को सब भावों (पदार्थों) का प्रकाश कहा गया है।
११२
११३
११५.
-
१०१. मूलाचार- ३६०, पुरुषार्थसि. १९९ औपपातिक सू. १९, तत्या. सू. ९.२०, व्याख्याय २५.३.७० १०२. (क) भगवती आरा. १०७। ख धवला, ९.४.१.५४, ग बृहत्कल्प भाग्य ( गाया- ११६९, भाग-२) ।
१०३. दश. १.१ पर जिनदास चूर्णि पृ. १५ ।
१०४. (क) उत. २९.१८ पर नेमिचन्द्रीय टीका में उद्धत (ख) प्रवचनसार, ३.३८।
-
१०५. उत्त. सू. २६.११-१२, २६.१७-१८, २६-४३।
१०६. (क) सामायिक आवश्यक प्रतिक्रमणआ सूत्र) । (ख) सावयावस्सय सुत्त प्रतिक्रमणा सूत्र- ज्ञानातिचार पाठ ।
१०७. उत्त. २५.३२।
१०८. भग. आरा. ७६८
१०९. भग. आरा. ७७१ ।
११०.
१११. पाहुडदोहा-८७१
११२. योगशिखोप. ६.७३ ।
११३. तत्वार्थ राजवार्तिक- १.२५.६
११४. सज्झाए णाणाह पसरु (सावयधम्मदोहा, १४० ) |
११५. उत्त. २६.३७
(९४)
(क) भग. आरा. ७६७। (ख) ८०७ (ग) चाणाक्य सू. ५६५ ।
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सम्पूर्ण जिनवाणी का सार ११६ तथा मोक्षमार्ग की सीढ़ा, ११७ चारित्र रूपी जहाज है, उसका चालक 'ज्ञान' ही है। ११८ जीवादि तत्वों के ज्ञान के बिना संयमादि का आचरण सम्भव नहीं है। ११९ मनुष्यत्व का सार 'ज्ञान' है। १२० किन्तु ज्ञान-प्राप्ति का, तत्त्व-निर्णय का, आत्म-ज्ञान का, १२१ मुख्य आधार श्रुत (जिनवाणी) है। फलतः सज्ज्ञान की प्राप्ति-हेतु सच्छास्त्र की उपासना या आश्रयण मोक्षार्थी के लिए परम कर्तव्य सिद्ध हो जाता है। १२२ शास्त्रों में बहुश्रत की भूरि-भूरि प्रशंसा की गई है। १२३ बहुश्रुतता स्वाध्याय से प्राप्त होती है।
स्वाध्याय से ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होकर १२४ प्रज्ञातिशय उत्पन्न होता है। १२५ दुःख का मूल अज्ञान है। १२६ स्वाध्याय से अज्ञान का विनाश, तथा ज्ञान-सूर्य का उदय होता है। १२७ घवलाकार की दृष्टि में प्रवचन के अभ्यास से सूर्य की किरणों के समान स्वच्छ ज्ञान उदित होता है। १२८ राजवार्तिककार स्वाध्याय का फल सभी संशयों की निवृत्ति मानते हैं। १२९
प्रज्ञातिशय के आनुपंगिक गुण - (अ) शासन व भूत की रक्षा - राजवार्तिककार के मत में जिनप्रवचन की रक्षा (प्रवचनस्थिति) स्वाध्याय से सम्भव है। स्वाध्याय से परवादियों की शंका तथा सर्वविध संशय सबका उच्छेद हो जाता है। १३° शासन का विस्तार धर्मोपदेश द्वारा सम्भव है। स्वाध्याय से ही परोपदेशकता का गुण समृद्ध होता है। १२१ स्थानांग के अनुसार स्वाध्याय का फल श्रुत का संग्रह,
११६. आचारांग-नियुक्ति, १७। ११७. शील पा. २०। ११८. (क) मूलाचार ८९८
(ख) समयसाराधिकार-७ ११९. दशवै. ४.१२। १२०. दर्शनप्राभृत ३१॥ १२१. (क) प्रवचनसार. ३.३२। (ख) द्वाद्वशानुप्रेक्षा-४६१। (ग) प्रवचनसार- ३.३३। १२२. (क) उत्त. मू. ११.३२। (ख) प्रवचनसार, ३.३२। १२३. उत्त. ११.१६.३१ १२४. उत्त. २३.१८, स्थानांग-५.३.५४१ १२५. प्रज्ञातिशय......इत्येवमाद्यर्थः (सर्वार्थ. ९.२५)। १२६. अण्णाणां परमं दुक्खं (ऋषिभाषित, २१.१)। १२७, (क) धवला, १.१.१.१ गाथा-५०-५१। (ख) तिलोयपण्णात्ति, १.३६। १२८. धवला, १.१.१.१ गाथा-४७। १२९. राजवार्तिक, त. सू. ९.२५.६। १३०. राजवार्तिक, ९.२५.६ १३१. भगवती आरा. १००.
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अभ्यस्त श्रुत की स्थिरता, सूत्र की अविच्छिन्नता आदि हैं। जिस शिष्य को स्वाध्याय कराया जाता है, उसमें भी श्रुत सेवा का भाव जागृत होता है। १३२ स्वाध्यायी औरों को भी धर्म में स्थिर कराता है (दशवै. ९.४ सू. ५, गा. ३)।
(आ) सत्कार-सम्मान में वृद्धि - स्वाध्याय के प्रत्यक्ष व परोक्ष दोनों प्रकार के फल है। १३३ परम्परा परोक्ष फल है-शिष्य-प्रशिष्य आदि द्वारा पूजा व सत्कार की प्राति है १२० देवों तथा मनुष्यों द्वारा निरन्तर प्राप्त होने वाली अभ्यर्थना अर्चना आदि -ये साक्षात् प्रत्यक्ष फल हैं। १३५
(इ) लौकिक अम्युदय-सुख - सातावेदनीय आदि सुप्रशस्त कर्मों के तीव्र अनुभाग के उदय से राजा-महाराजा-चक्रवर्ती आदि ऐश्वर्ययुक्त-व्यक्तियों के सुख की प्राप्ति-यह स्वाध्याय का परोक्ष फल है। १३६
३. चित्त की एकाग्रता व ध्यानादि में सहायता - स्वाध्याय से चित्त की एकाग्रता होती है। १३७ स्वाध्यायी व्यक्ति प्रमादग्रस्त नहीं होता। १२८ स्वाध्याय से मन पर विजय प्राप्त होती है। १२४ स्वाध्याय से इन्द्रियों की बहिर्मुखता रुकती है। १४° स्वाध्याय को धर्मध्यान का आलम्बन कहा गय
४. मोक्षमार्ग/मोक्षप्राप्ति में सहायता - आत्म ज्ञान से मोक्ष-प्राप्ति होती है, आत्मज्ञान के बिना नहीं। १४२ शास्त्राध्ययन से आत्म-अनात्मविवेक (भेद-ज्ञान) हो जाता है। १०२ शास्त्राभ्यास से इन्द्रिय जय, मनो-जय कषाय उपशम, तथा कर्मक्षय होकर मोक्षप्राप्ति होती है। १४४ द्रव्यश्रुत से भाव श्रुत, क्रम से सम्यग्ज्ञान, संवेदन, आत्मसंवित्ति, केवलज्ञान, फिर मोक्ष होता है। १४५ इसीलिए जिन-वचन को विषय सुखों का विरेचक, जन्ममरण रूप व्याधि का नाशक, सर्वदुखःक्षय का अमृत-औषधि कहा गया है। १०६
१३२. स्थानांग ५.३.५४१। १३३. ति. प. १.४०.४१ १३४. ति. प. १.३८ १३५. ति. प. १.३७ १३६. ति. प. १.४०-४१ १३७. दशवै. ९.४ सू. ५, गाथा-३, मूलाचार-९६९, १३८. मूलाचार- ९७१, उत्त. २९.५९ १३९. तत्त्वानुशासन- ७९, १४०. सावयधम्मदोहा-१४० १४१. ठाणांग-४.१.३०८, ब पाख्याप्र. २५.७.८०२, औपपा. १९, रयणा सार १५५, द्वादशानु तत्वानुशासन-८१ १४२. प्रवचनसार- १.८९, योगसार-१२, १४३. समयसार- २७४ पर आत्मख्यात टीका, प्रवचनसार ३.३३ पर तत्त्वदीपिका टीका १४४. रयणा सार- ९१, ९५, १४५. नयचक्र वृहद- ३९४ पर उद्धत ( जै. सि. को ४.५२६)। १४६. दर्शन प्राभृत-१७,
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________________ स्वाध्याय से ज्ञान-प्रतिबन्धक कर्मों की निर्जरा होती है। सूत्रों के अध्ययन से, मननादि से जीवों के प्रति समय असंख्यात गुणित श्रेणी से पूर्वसंचित कमों की निर्जरा बताई गई। 107 यह निर्जरा श्रोता व व्याख्याता दोनों को होती है। 148 स्वाध्याय से भावसंवर (बुरे भावों का रुकना) नया नया संवेग (धर्म में श्रद्धा) रत्न-त्रय में निश्चलता, तप, भावना (गुप्तियों में तत्परता) आदि गुण उत्पन्न होते हैं। 141 स्वाध्याय का फल प्रशस्ताध्यवसाय, 15deg अतिचार विशुद्धि तता बुद्धिनिर्मलता आदि भी हैं। साधक शास्त्रों का जैसे-जैसे अवगाहन करता है, वैसे, वैसे उसे अधिकाधिक परमानन्द का अनुभव होता जाता है। 151 स्वाध्याय से तपस्या में वृद्धि तदनुरूप निर्जरा में वृद्धि, रत्नत्रय में वृद्धि आदि अनेक महनीय फल हैं जिससे साधना-मार्ग में स्वाध्याय-योग की महती उपयोगिता स्वतः सिद्ध हो जाती है। उपाचार्य एवं अध्यक्ष जैन दर्शन विभाग श्री ला.ब.शा राष्ट्रीय विद्यापीठ (मान्यविश्वविद्यालय) करवारिया, सराय नई दिल्ली-१६ * * * * * 147. धवला- 9.4.1.1 148. धवला 9.5.5.50, तिलोयप 1.37, झै. सि, को. 4.525 / 149. भगवती आरा 100 150. सवार्थ 9.25, राजवार्तिक- 9.25. 6, 151. भगवती आरा. 105, 106. (97)