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जैन शास्त्रों में स्वाध्याय के पांच अंग बताए गए हैं। तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार १. वाचना, २. पृच्छना, ३. प्रतिपृच्छना (अनुप्रेक्षा), ४. आम्नाय, ५. धर्मोपदेश-ये पाँच अंग हैं । व्याख्याप्रज्ञप्ति (भगवती सूत्र), मूलाचार आदि के अनुसार १. वाचना, २. पृच्छना, ३. परिवर्तना, ४. अनुप्रेक्षा, ५. धर्म कथा-ये ५ अंग हैं ।
१ वाचना - निर्दोष ग्रन्थ तथा तत्प्रतिपादित अर्थ-इन दोनों के उपदेश का योग्य पात्र को प्रदान करना वाचना है ३१। गुरु शिष्य को सूत्रादि को 'वाचना' प्रदान करता है, भव्य जीव को शास्त्र पढ़ाता है, ग्रन्थ के अर्थ की प्ररूपणा करता है ३२, शिष्य उसको ग्रहण करता है। वह शिष्य भी योग्य पात्रों को वाचना दे सकता है। सामान्यतः सद्गरु से सूत्रपाठ की शिक्षा लेकर (न कि किसी पुस्तकादि से चुरा २२ कर या चोरी से स्वयं पोथी बांच कर) शास्त्रों का वाचन, आत्मकल्याण-हेतु निर्दोष ग्रन्थों को स्वयं पढ़ना दूसरों को समझाने हेतु सूत्रानुयोगी व्याख्यान करना या वाचन करना-ये सब कार्य वाचना के अन्तर्गत हैं।
सूत्र-व्याख्यान के ६ भेद शास्त्रों में बताए गए हैं-(१) संहिता (पद का अस्खलित, शुद्ध उच्चारण), (२) पद (वाक्य के प्रत्येक पद का शुद्ध-शुद्ध पृथक-पृथक् उच्चारण, (३) (पदार्थ पद का अर्थ) ,(४) पद-विग्रह, (५) (पदच्छेद) (चालना शंका आदि उठाना), (६) प्रसिद्धि (उठाई गई शंकाओं का समुचित समाधान) २५
सूत्रों का उच्चारण इस तरह सांगोपांग व परिपूर्ण रूप से किया जाए कि अक्षरादि की स्खलना न हो, पदों को पृथक-पृथक कर पढ़ा जाए, अपनी ओर से कोई अक्षर, पद आदि का न तो योग किया जाय और न ही कमी की जाए, वर्गों का यथास्थान (उदात्तादिघोष-नियमानुरूप), सुस्पष्ट (न कि अव्यक्त)उच्चारण हो, प्रत्येक पद माला में गुंथे फूल जैसा सुशोभित हो। २५
२९. तत्त्वा . सू. ९.२५। ३०. (क) व्याख्या प्र. २५.७.८०१
(ख) मूलाचार -३९३
(ग) उत्त. ३०.३४। ३१. (क) औपपा. १९
(ख) सर्वार्थसिद्धि ९.२५। ३२. धवला ९.४.१.५४, ५५, जै. को. ३.५.३९। ३३. अनुयोग द्वार, १३-१४ सू.।
विशेषावश्यक भाषय- ८५०-८५५। ३४. उद्धृत, सुत्तागमे, II भाग पृ. ५८-५९ ३५. (क) अनुयोगद्वार सू. १३-१४।
(ख) द्र. विशेषावश्यक भाष्य, ८५१, ८५४, ८५५। (ग) व्या. महाभाष्य पस्पशान्हिक १.१.१॥
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